नेहरूवियन सहमति । “Consent of Nehruvian” in Hindi Language!
नेहरूवादी सर्वसम्मत भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के काल में विकसित आदर्शों एवं सिद्धांतों पर आधारित था । राष्ट्रीय आंदोलन में महात्मा गाँधी का गहरा प्रभाव था । हम लोगों ने जो संघर्ष किया, बहु राजनीतिक स्वतंत्रता मात्र नहीं था बल्कि भारतीय सभ्यता का सांस्कृतिक एवं नैतिक उदय था ।
नेहरू जी ने दो विश्व युद्धों के मध्य की अंतर्राष्ट्रीय संबंध की व्याख्या करने के लिए गाँधीवादी नैतिक और सामाजिक आवश्यकताओं का संयोजन किया । नेहरू ने यह स्थापित किया कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के दो प्रमुख प्रतिमान हैं: शक्ति की राजनीति; एवं बल प्रयोग का भय ।
इन प्रतिमानों के कारण ही प्रथम विश्व युद्ध भड़का, राष्ट्र संघ की विफलता हुई फासीवाद का उदय हुआ तथा सह-बंधन की राजनीति एवं उसके विपरीत सह-संबंध के कारण ही द्वितीय विश्व-युद्ध की शुरुआत हुई । नेहरू को इस बात का ज्ञान था कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच की प्रतिद्वंद्विता का कारण भी यही प्रतिमान है ।
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यह शोधकर्त्ताओं के बीच तर्क का विषय है कि नेहरू आदर्शवादी थे तथा उन्होंने भारतीय विदेश नीति को कुछ आदर्शों पर आधारित करना चाहा, अथवा यथार्थवादी थे जो कूटनीति के सहारे अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की शक्ति की राजनीति का निवारण चाहते थे ।
भारतीय विदेश नीति को गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर आधारित कर नेहरू अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में नियामक परिवर्तन लाना चाहते थे तथा उसके पश्चात् भारत के राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करना चाहते थे । पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने स्वतंत्रता के बाद यह महसूस किया कि संपूर्ण विश्व दो गुटों में बँटा हुआ है और दोनों गुट शक्ति की राजनीति पर अवलम्बित होकर विश्व को शीत युद्ध की ज्वाला में झोंक रहे हैं जिसके कारण विश्व के सभी राष्ट्र भय और आतंक के वातावरण में अपना जीवन गुजार रहे हैं ।
पंडित नेहरू ने दो विश्वयुद्धों के दौरान यह महसूस किया था कि अंतर्राष्ट्रीय गुटबाजी के कारण ही दोनों विश्वयुद्ध लडे गए जिसके कारण व्यापक रूप में जानमाल की क्षति हुई । उन्होंने इन दोनों गुटों से अलग होकर भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर गुट निरपेक्ष नीति का अवलम्बन किया जो नीति 1950 से 60 के दशक में स्वर्ण काल के नाम से संबोधित रही ।
1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो पंडित नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति कामयाब सिद्ध नहीं हुई । फिर भी नेहरू की इस नीति को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यापक रूप से सराहा गया । इस नीति के अंतर्गत विश्व के दो गुटों में से किसी भी गुट में शामिल न होना, परंतु दोनों गुटों के साथ मधुर संबंध बनाए रखना तथा उनसे प्राप्त होने वाले लाभों से मुँह नहीं मोड़ना आदि गुट निरपेक्षता के महत्वपूर्ण आयाम रहे हैं ।
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नेहरू की नीति ने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एशिया और अफ्रीका महादेश के विभिन्न देशों को स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रेरणा दी और सहयोगात्मक भावना के आधार पर सभी देशों के साथ आदान-प्रदान की नीति का संचालन किया । इस नीति को नासिर, मार्शल टीटो आदि अंतर्राष्ट्रीय नेताओं ने स्वीकृति प्रदान की ।
नेहरू जी ने अपनी जिस अंतर्राष्ट्रीय नीति का प्रारंभ किया, वह भारतीय संस्कृति की आदर्श परंपरा पर अवलम्बित था और इसी परंपरा के आधार पर महात्मा गाँधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था । भारतीय परंपरा के अंतर्गत वेदांत जैन और बौद्ध दर्शन सत्य और अहिंसा को विशेष महत्त्व देते हैं ।
पंडित नेहरू ने इसी परंपरा का संकलन करते हुए अपनी वैदेशिक नीति का निर्माण किया । महात्मा गाँधी भी इसी नीति के समर्थक थे । सरदार पटेल, डॉ. राधाकृष्णन, मौलाना अबुल कलाम आजाद, वी. के. कृष्ण मेनन, गोपाल स्वामी आयंगर, वी. एन. राव, सर गिरिजा शंकर वाजपेयी तथा भारत के प्रथम विदेश सचिव के पी. एस. मेनन जैसे अनुभवी एवं योग्य अधिकारियों के परामर्श एवं संपूर्ण भारतीय मानसिकता के आधार पर इस वैदेशिक नीति का अवलम्बन किया गया जो एक तरफ तो भारतीय जनमानस की सर्वस्वीकृति पर अवलम्बित था, तो दूसरी तरफ इस नीति का समर्थन विश्व के लगभग सभी देशों ने करके अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अपनी स्वीकृति स्पष्ट की ।
इससे स्पष्ट होता है कि पंडित नेहरू द्वारा प्रतिपादित वैदेशिक नीति आंतरिक और बाह्य दोनों क्षेत्रों में सर्वसम्मति के सिद्धांत पर अवलम्बित थी । आज बदले हुए परिवेश में नेहरूवादी सहमति की प्रासंगिकता पर सवाल उठ रहे हैं । यद्यपि यह कहा जा सकता है कि सैन्य बल से ज्यादा कुशल कूटनीति पर आश्रय आज ज्यादा प्रासंगिक हो गया है क्योंकि अब भारत सभी शक्तियों के साथ अनुकूल संबंध एवं आर्थिक सहयोग बढ़ाना चाहता है ।
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यह उस दृष्टिकोण के विपरीत है जो यह कहता है कि ‘नेहरूवादी सहमति’ पुराना सिद्धांत हो चुका है तथा उसका परित्याग कर दिया गया है । कुछ हद तक वह अंतर्राष्ट्रीय लोक स्थान जिसने कि नेहरू तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन को कार्य करने की स्वायत्तता दी, का ह्रास हो रहा है । इसके अतिरिक्त, गुटनिपरेक्ष आंदोलन ने स्वयं ही आतरिक सामंजस्य एवं एकता को खो दिया, अत: उसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठ खड़े हुए हैं ।