Read this article in Hindi language to learn about the three main needs of adolescence. The needs are: 1. Food Related Needs 2. Psychological Needs 3. Need of Sex Education in Adolescence.
किशोरावस्था में अत्यन्त तीव्र गति से शारीरिक परिवर्तन होते हैं । इसके साथ-साथ शरीर के अन्य भागों में भी तेजी से विकास होता है । इस समय माता-पिता व अन्य वयस्कों की अपेक्षाएँ भी बदल जाती हैं । इस कारण कभी-कभी किशोर काफी भ्रमित हो जाते हैं ।
इस अवस्था में माता-पिता तथा घर के अन्य बुजुर्गों को किशोर व किशोरियों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए ताकि उनका विकास अच्छा हो तथा किशोरों के व्यवहार में किसी भी प्रकार का विकार न आये ।
किशोरावस्था में किशोरों की नाना प्रकार की समस्यायें होती हैं जिनका समाधान करने की आवश्यकता होती है । इन आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेदारी परिवार व मित्रगणों की होती है ।
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किशोरावस्था की आवश्यकताएँ निम्न प्रकार हैं:
(1) भोजन सम्बन्धी आवश्यकताएँ (Food Related Needs):
किशोरावस्था में वृद्धि अत्यन्त तीव्र गति से अचानक ही होती है । इस कारण उनके पौष्टिक तत्वों की आवश्यकताएँ अधिक हो जाती हैं, यदि वृद्धि व विकास के अनुसार उन्हें सन्तुलित आहार प्राप्त नहीं होता तो वे चिड़चिड़े हो जाते हैं जिसका प्रभाव उनके विकास पर पड़ता है ।
कई बार किशोरों को लगता है कि वे अपनी आयु से अधिक मोटे हो रहे हैं जिस कारण वे अपने भोजन में कमी करने लगते हैं जिसका कुप्रभाव पड़ता है । अत: इस समय माता-पिता का कर्तव्य होता है कि वे उन्हें उन पदार्थों की जानकारी दें जिससे उनका स्वास्थ्य ठीक रहे तथा उनका विकास उचित प्रकार हो सके । कुछ किशोर अत्यन्त भावुक होते हैं तथा अधिक डाँट फटकार से वे तनाव की स्थिति में आ जाते हैं और खाना खाते ही उल्टी करने लगने हैं ।
(2) मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ (Psychological Needs):
यह आवश्यकताएँ सामाजिक व सांस्कृतिक वातावरण से प्रभावित होती हैं इसलिये इन्हें द्वितीय आवश्यकताओं में रखा जाता है । इन आवश्यकताओं का सम्बन्ध सामाजिक जिज्ञासा तथा उनके उचित समाधान से होता है ।
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प्रत्येक किशोर की मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न होती हैं तथा यह भी आवश्यक है कि उनकी संतोषजनक संतुष्टि हो तभी किशोर का मनोवैज्ञानिक विकास अच्छी तरह होगा ।
सामाजिक व मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को निम्न भागों में विभाजित किया गया है:
(i) सुरक्षात्मक आवश्यकता (Needs for Security):
शारीरिक रक्षा के अतिरिक्त, किशोरों की संवेदात्मक, सामाजिक तथा अर्थिक सुरक्षा की आवश्यकताएँ भी प्रबल होती हैं । ऐसे किशोरों की परिवार के द्वारा किसी भी प्रकार की रक्षात्मक आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती जिससे वे परिवार व समाज में अच्छी तरह सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते ।
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(ii) प्यार की आवश्यकता (Needs for Love):
किशोरों को प्यार व दुलार की अत्यन्त आवश्यकता होती है । किशोरावस्था में प्यार की इच्छा तीव्र होती है । वे प्यार पाना व देना दोनों चाहते हैं । कई किशोरों के मन में यह धारणा रहती है कि उन्हें कोई प्यार नहीं करता जिस कारण वे अपने आपको असुरक्षित व अकेला महसूस करते हैं । अत: संतुलित प्यार दुलार किशोरों में सुरक्षा की भावना को बलवान करते हैं तथा ऐसे किशोर समाज में सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम होते हैं ।
(iii) सहमति की आवश्यकता (Needs for Approval):
किशोर अपनी स्वयं की पहचान बनाना चाहता है तथा उसका अहम तभी संतुष्ट हो पाता है जब उसे परिवार व समाज में उचित सहमति व पहचान प्राप्त होती है । वे विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होते हैं तथा विपरीत लिंग का आकर्षण अपनी ओर करने के लिये सामाजिक उत्सव में अपने आप को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वे ही आकर्षण का केन्द्र बने रहें ।
इस आकर्षण के लिये उनमें ज्ञानवर्धक योग्यता के साथ-साथ सजने सँवरने की कला भी होनी चाहिए । शिक्षक की भूमिका इस समय महत्वपूर्ण होती है । शिक्षक अपने छात्र-छात्राओं की रुचि जान कर उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं ताकि वे योग्य बनें तथा समाज में उन्हें उचित मान-सम्मान प्राप्त हो सके ।
(iv) स्वतंत्रता एवं स्वावलम्बी आवश्यकता (Needs for Freedom and Independence):
किशोरावस्था एक ऐसा समय है जब किशोर, माता-पिता तथा परिवार के अन्य बड़े सदस्यों के नियंत्रण से दूर रहना चाहते हैं । वे अपनी इच्छा, विचार व संवेदना व्यक्त करने का अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं । यदि उन पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण किया जाता है तो वे चिड़चिड़े और अप्रसन्न हो जाते हैं ।
इस अवधि में किशोर व किशोरियाँ अपने माता-पिता से स्वतन्त्र होना चाहते हैं, वहीं उन्हें अपनी आर्थिक व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये माता-पिता पर निर्भर रहना पड़ता है । माता-पिता चाहते हैं कि बच्चे उनके नियन्त्रण में रहें ।
परन्तु बच्चे स्वतन्त्रता चाहते हैं, उनको यह अच्छा नहीं लगता कि कोई हर समय उनसे कहे ‘यह मत करो’, ‘वह मत करो’, ‘ऐसे कपड़े मत पहनो’ आदि । इसका परिणाम यह होता है कि अभिभावकों व बच्चों में एक प्रकार का द्वन्द्व शुरू हो जाता है ।
अत: माता-पिता को इस बात का निश्चय करना चाहिए कि उन्हें बच्चों को किस हद तक स्वतन्त्रता देनी है तथा किस हद तक नियन्त्रित करना है । इसके साथ-साथ इस बात को भी तय करना चाहिए कि उन्हें बच्चों की किन-किन क्षेत्रों में कहाँ और किस हद तक बात माननी है ।
माता-पिता अपने बच्चों पर अनुशासन रखने के लिये निम्न तरीकों का उपयोग करते हैं, जिनका प्रभाव अच्छा या बुरा हो सकता है:
i. जो माता-पिता अपने बच्चों को अधिक स्वतन्त्रता देते हैं तथा उनके द्वारा लिये गये निर्णयों में दिलचस्पी लेते हैं और जिम्मेदारी का भाव दिखाते हैं, वे अपने बच्चों को अधिक आत्मनिर्भर और जिम्मेदार बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ।
ii. कुछ माता-पिता अत्यन्त सख्त व तानाशाही प्रकृति के होते हैं । वे बच्चों को निर्णय लेने ही नहीं देते अपितु अपने निर्णय उनके ऊपर थोपते हैं । इस प्रकार के माता-पिता किशोरों की आत्मनिर्भर होने की क्षमता पर एक तरह से रोक लगा देते हैं तथा किशोर कुंठित हो जाते हैं और आगे चलकर विद्रोहिक प्रवृत्ति के बन जाते हैं ।
iii. कुछ माता-पिता अपने ही जीवन में मस्त रहते हैं वे किशोरों की समस्याओं को उनके ऊपर ही छोड़ देते हैं तथा तटस्थ बने रहते हैं । ऐसे माता-पिता अपने बच्चों से ज्यादा बात-चीत भी नहीं करते । अत: ऐसे किशोर तटस्थ मनोवृत्तियों वाले ही होते है । अत: किशोरों स्वतंत्रता व स्वावलम्बी होने का करना माता-पिता व परिवार के सदस्यों का कर्तव्य है ।
(v) स्वयं की बात रखने व योग्यता प्राप्त करना (Need for Self Expression and Achievement):
प्रत्येक किशोर की इच्छा होती है कि वह अपनी विशेष योग्यताओं को व्यक्त कर सके तथा परिवार में अपनी बात रख सके । किशोरों में एक कवि, गायक, कलाकार आदि बनने की छिपी हुई योग्यता होती है, उन्हें केवल पर्याप्त अवसर प्राप्त होना चाहिए ताकि वे उन योग्यताओं को उभार सकें ।
जब इन योग्यताओं से उन्हें उचित सफलता प्राप्त होती है तो वे संतुष्ट हो जाते हैं । परन्तु यदि उन्हें असफलता प्राप्त होती है तो वे कुंठित हो जाते हैं ।
(3) किशोरावस्था में यौन शिक्षा की आवश्यकता (Need of Sex Education in Adolescence):
किशोरावस्था के अंत तक किशोर यौन रूप से परिपक्व तथा वैवाहिक जीवन के लिये तैयार हो जाता है इसलिये किशोरों को यौन विकास के विषय में शिक्षित करना आवश्यक है ताकि वे भविष्य में आने वाली समस्याओं व सामंजस्य से तालमेल बैठा सकें ।
इस अवस्था में किशोर जैसी विचारधारा/प्रवृत्ति वे इस विषय में बनायेंगे, उसका प्रभाव व आधार उनके वैवाहिक जीवन पर पड़ेगा । किशोर द्वारा उत्तम यौन प्रवृत्तियों को अपनाने में माता-पिता व स्कूल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ।
किशोरावस्था में शरीर में गौण यौन लक्षणों का विकास होता है तथा हारमोन की गतिविधि बढ़ती है, जिससे किशोर के मन में अनेक प्रश्न उठते हैं, जिनका समाधान वे पुस्तकों व हम उम्र दोस्तों से करने का प्रयास करते हैं ।
परन्तु यौन विषय पर छपी पुस्तकों से जो भी जानकारी ज्ञात होती है वे अत्यन्त भ्रम पैदा करने वाली ही होती हैं । इसके साथ-साथ हम उम्र दोस्तों की यौन जानकारी भी अधकचरी व भ्रांतिपूर्ण होती है । अत: इस प्रकार की सूचनाओं से लाभ पहुंचने की अपेक्षा हानि ही अधिक होती है ।
अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों द्वारा पूछे गये यौन सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर एक परिपक्व वयस्क की तरह दे सकते हैं परन्तु वे भी उत्तर देने में असहजता महसूस करते हैं । अत: यह अत्यन्त आवश्यक है कि माता-पिता बच्चों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनायें ताकि यदि बच्चे उनसे अपना कोई भी जिज्ञासा युक्त प्रश्न पूछें तो माता-पिता उन प्रश्नों का उत्तर संतोषजनक ढंग से निःसंकोच दे सकें ।