Read this article in Hindi to learn about the five main case studies on pollution.
केस अध्ययन # 1:
तेल के रिसाव के कारण से जल प्रदूषण (Exxon Valdez: An incident about oil spill):
तेल के रिसाव की अभी तक की भयंकर दुर्घटनाओं में एक है एक्सान वाल्डेज (Exxon Valdez) की दुर्घटना । 24 मार्च 1989 को टैंकर एक्सान वाल्डेज, जिसकी चौड़ाई फुटबाल के तीन मैदानों से भी अधिक थी, अलास्का में वाल्डेज के पास प्रिंस विलियम साउंड में एक 16 किलोमीटर चौड़े चैनल में चला गया । जल में डूबी चट्टानों से टकराकर उसने पर्यावरण के लिए भारी विपत्ति पैदा कर दी ।
तेल की तेजी से फैलती पर्त जल्द ही 1600 किमी से अधिक जल पर छा गई जिससे 3 लाख से 645,000 जलचर पक्षियों, बड़ी संख्या में समुद्री ऊदबिलावों, हार्बर सीलों, ह्वेलों और मछलियों की जानें गईं । सफाई के कार्यों पर प्रत्यक्ष रूप से एक्सान ने 2.2 अरब डालर खर्च किए ।
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पर सफाई के प्रयासों के कुछ परिणामों से पता चला कि जहाँ तटों की सफाई के लिए भारी दबाव वाले और गर्म पानी के जेटों का प्रयोग किया गया वहाँ वे तटीय पौधे और प्राणी भी मारे गए जो तेल के रिसाव से बच गए थे । इस तरह इससे लाभ से अधिक हानि हुई ।
एक्सान ने 1991 में अपना दोष माना तथा जुर्माने और दीवानी हर्जाने के रूप में संघीय सरकार और अलास्का सरकार को एक अरब डालर देने पर तैयार हो गया । अगर एक्सान ने टैंकर पर दोहरा पेटा (एक पर दूसरा खोल-double hull) चढ़ाने पर केवल 2.25 करोड़ डालर खर्च किया होता तो यह 8.5 अरब डालर की दुर्घटना नहीं होती । ऐसे दोहरे पेटे वाले पोतों में दरार पड़ने और तेल के रिसकर बाहर निकलने की संभावना कम होती है । इस रिसाव ने समुद्र में प्रदूषण की रोकथाम की आवश्यकता को स्पष्ट किया ।
केस अध्ययन # 2:
मीनामाता-पारे से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण सबक (Minamata- An important lesson about mercury):
जापान की मीनामाता खाड़ी में लगभग 40 साल पहले मनुष्यों पर पारे के विषाक्त प्रभाव का एक दृष्टांत सामने आया जिसने संसार को पारे के विषाक्त प्रभावों के बारे में एक महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ाया । खाड़ी के पास स्थित एक बड़ा प्लास्टिक संयंत्र प्लास्टिक की आम सामग्री विनाइल क्लोराइड बनाने के लिए पारे के एक यौगिक का प्रयोग करता था । बचा-खुचा पारा संयंत्र के दूसरे कचरे के साथ खाड़ी में डाल दिया जाता था ।
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डाले जाते समय यह पारा अपने कम विषैले, अकार्बनिक रूप में होता था, पर खाड़ी की तलहटी में सूक्ष्मप्राणी उसे कार्बनिक रूप में बदल देते थे । यह कार्बनिक पारा फिर मछलियों के ऊतकों में जाता था और इस तरह उस क्षेत्र के निवासियों के पेट में पहुँचता था । प्रदूषित मछलियों से मनुष्यों में इस विष के फैलने से बहुत-से लोग मरे या प्रभावित हुए । प्रदूषित मछलियाँ खानेवाली स्त्रियों ने ऐसे बच्चों को जन्म दिया जिनमें पारे के विष के प्रभाव स्पष्ट थे । इस तरह पारे के विषाक्त प्रभाव को ‘मीनामाता रोग’ कहते हैं ।
केस अध्ययन # 3:
भारत में भूमिगत जल का प्रदूषण (Groundwater pollution in India):
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अत्यधिक निकास के कारण भूमिगत जल के प्रदूषण का एक उदाहरण फ्लोराइड प्रदूषण या फ्लोरोसिस का है । फ्लोरोसिस कोई स्थानीय समस्या नहीं है । यह थार रेगिस्तान से लेकर गंगा के मैदानों और दक्कन के पठार तक 19 राज्यों और अनेक प्रकार के पारितंत्री क्षेत्रों में फैल चुका है । वर्षा की मात्रा, मिट्टी के प्रकार, भूमिगत जल की भरपाई की परिस्थितियाँ, जलवायु की दशाओं और जलविशाल की दृष्टि से इनमें से हर क्षेत्र की अपनी विशेषता है ।
भूमिगत जल में फ्लोराइड की भारी मात्रा चीन, श्रीलंका, वेस्ट इंडीज, स्पेन, थाईलैंड, इटली और मेक्सिको जैसे अनेक देशों में एक प्राकृतिक घटना है । विशेषज्ञों का दावा है कि मध्य-पूर्व से लेकर पाकिस्तान और भारत होते हुए दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण चीन तक फ्लोराइड की एक पट्टी फैली हुई है । राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय प्रायद्वीप की आधारशिला में फ्लोराइड-युक्त अनेक खनिज मौजूद हैं ।
यह आधारशिला जब घिसती है तो फ्लोराइड पानी और मिट्टी में आ जाता है । हालाँकि भारतीय प्रायद्वीप की आधारशिला हमेशा से ऐसी ही रही है पर यह समस्या पिछले तीन दशकों में ही सामने आई है । इसका संबंध भूमिगत जल के अत्यधिक निकास से है जिसके कारण क्लोराइड की भारी मात्रा वाले जलभरों (acquifers) का पानी निकाला जाने लगा है ।
इस समस्या का आरंभ 1970 और 1980 के दशकों में दिखाया जा सकता है जब सिंचाई और पेयजल के लिए ग्रामीण जल विकास कार्यक्रम में सरकार ने भारी निवेश किया । डीजल और बिजली पर राज्य से प्राप्त अनुदानों से प्रेरित होकर लोगों ने बोरवेल से पानी निकालने के प्रयास में डीजल और भूमि में धँस सकने वाले पंपों में पैसा लगाया । इस नीति ने फ्लोराइड की समस्या को तीखा बनाया ।
फ्लोराइड मानव-शरीर में मुख्यतः पेयजल के रास्ते जाता है और वहाँ उसका 96-99 प्रतिशत भाग हड्डियों से मिल जाता है क्योंकि हड्डियों के कैल्शियम फास्फेट से उसके संयोग की प्रवृत्ति होती है । फ्लोराइड का अत्यधिक सेवन दातों के, हड्डियों के या अन्य प्रकार के फ्लोरोसिस का कारण बनता है । दाँतों के फ्लोरासिस में दाँत बदरंग, काले, या खड़िया जैसे सफेद हो जाते हैं । कंकाल के फ्लोरोसिस में हड्डियों और जोड़ा में भयानक और स्थायी विकृतियाँ आती हैं । गैर-कंकाल फ्लोरोसिस आँतों की समस्याओं और स्नायु के विकारों को जन्म देता है ।
फ्लोराइड भ्रूण को हानि पहुँचा सकता है तथा बच्चों के आई क्यू (बुद्धि गुणांक) पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । पानी में क्लोराइड का पता लगने पर तो फ्लोराइड को निकालना ही इसका एकमात्र हल है । इस प्रक्रिया के लिए अनेक प्रौद्योगिकियाँ मौजूद हैं । लेकिन प्रौद्योगिकी के प्रकार का चुनाव पानी में फ्लोराइड की मात्रा और साफ किए जानेवाले पानी की मात्रा पर निर्भर होता है । भारतीय प्रौद्योगिकियों में कोई भी प्रौद्योगिकी संपूर्ण नहीं है । फ्लोराइड निकालने के संयंत्र और घरेलू जल के शोधन केवल अस्थायी समाधान हैं ।
केस अध्ययन # 4:
भारत में कीटनाशकों की समस्या (Pesticide pollution in India):
जल में कीटनाशक अथवा रोगनाशक प्रदूषण के सबसे भयानक प्रभावों में एक प्रभाव तब सामने आया जब बोतलबंद पानी में कीटनाशक पाए गए । जुलाई और दिसंबर 2002 के बीच नई दिल्ली स्थित विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (Centre for Science and Environment-CSE) की प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला ने बोतलबंद पानी के 17 ब्रांडों का विश्लेषण किया जिनमें बोतलबंद पेयजल और बोतलबंद प्राकृतिक खनिजयुक्त जल दोनों शामिल थे जो आम तौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में बेचे जाते थे ।
इन सभी नमूनों में आर्गेनोक्लोरीन (organochlorines) और आर्गेनोफास्फोरस (organophosphorus) कीटनाशकों के अवशेष पाए गए जो भारत में सबसे अधिक प्रयोग किए जाते हैं । आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशकों में गामाहेक्साक्लोरोसाइक्लोहेक्सेन (लिंडेन) ओर डी डी टी पाए गए जबकि आर्गेनोफास्फोरस कीटनाशकों में मैलेथियन और क्लोरपाइरीफास सबसे आम थे । ये सभी यूरोपीय आर्थिक समुदाय (European Economic Community-EEC) द्वारा निर्धारित उन सुरक्षित स्तरों से अधिक पाए गए जो पूरे यूरोप में प्रयुक्त मानदंड हैं ।
किसी को भी यह हैरानी हो सकती है कि कीटनाशकों के ये अवशेष अनेक बड़ी कंपनियों द्वारा उत्पादित बोतलबंद पानी में कैसे आए । इसके अनेक कारण कहे जा सकते हैं । बोतलबंद पानी का उद्योग ‘स्वच्छ’ अंचलों में स्थित हो, ऐसा कोई नियम नहीं है । इस समय अधिकांश ब्रांडों के उत्पादन संयंत्र सबमे गंदे औद्योगिक क्षेत्रों में या खेतों के बीच में स्थित हैं । 24 से 152 मीटर तक की गहराई से पानी के लिए अधिकांश कंपनियाँ बोरवेल का प्रयोग करती हैं । संयंत्रों से कच्चे पानी के जमा किए गए नमूने में भी कीटनाशकों के अवशेष पाए गए ।
इससे स्पष्ट संकेत मिला कि बोतलबंद पानी के उत्पादन के लिए कीटनाशकों के अवशेषों से प्रदूषित भूमिगत जल का प्रयोग किया जा रहा है । यह सब बावजूद इस सच्चाई के है कि बोतलबंद पानी के सभी संयंत्र जल शुद्ध करने की अनेक विधियों का प्रयोग कर रहे हैं । स्पष्ट है कि दोष शोधन की विधियों में है । ये संयंत्र झिल्ली प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हैं जिसे अतिसूक्ष्म रंध्रोंवाली झिल्लियों से छानकर बारीक निलंबित कणों, तमाम जीवाणुओं, प्रोटोजोआ यहाँ तक कि विषाणुओं को भी निकाला जाता है ।
नैनोफिल्ट्रेशन से कीटनाशक और शकनाशक (herbicides) दूर तो हो सकते हैं पर यह खर्चीला है और कभी-कभार ही प्रयुक्त होता है । अधिकांश उद्योग सक्रिय चारकोल से अधिशोषण की प्रक्रिया का व्यवहार करते हैं जो कार्बनिक कीटनाशकों को तो हटा देती है पर भारी धातुओं को नहीं ।
कीटनाशकों को दूर करने के लिए ये संयंत्र प्रतिवर्तित परासरण (osmosis) और दानेदार सक्रिय चारकोल (granular activated charcoal) की विधियों का प्रयोग करते हैं । इसलिए उत्पादक भले ही इन प्रक्रियाओं के व्यवहार का दावा करें, कीटनाशकों के अवशेषों की मौजूदगी दिखाती है कि उत्पादक या तो शोधन प्रक्रिया का कारगर व्यवहार नहीं करते या फिर कच्चे पानी के एक भाग का ही शोधन करते हैं ।
बोतलबंद पानी में कीटनाशकों के अवशेषों की कम मात्राएँ तीखे या तुरंत प्रभाव पैदा नहीं करतीं । लेकिन उनकी अत्यंत कम मात्रा का भी लगातार सेवन किया जाए तो इससे कैंसर, जिगर और गुर्दे की क्षति, स्नायुतंत्र के विकार, प्रतिरक्षा प्रणाली की क्षति और जन्मजात रोग हो सकते हैं ।
बोतलबंद पानी में कीटनाशकों के अवशेषों की रिपोर्ट देने के 6 माह बाद CSE ने देशभर में बेचे जा रहे लोकप्रिय कोल्ड ड्रिंक के ब्रांडों में भी ये कीटनेशिक पाए । कारण यह है कि जल कोल्ड ड्रिंक या कार्बोनेटेड गैर अल्कोहल पेय का मुख्य घटक है और भारत में इन पेयों में प्रयुक्त जल के लिए कोई मानदंड तय नहीं है ।
खाद्य पदार्थों में मिलावट की रोकथाम के लिए भारत में 29 सितंबर 2000 तक बोतलबंद जल संबंधी कोई मानदंड नहीं था । इसी दिन खाद्य मिलावट नियंत्रण निगम 1954 को संशोधित करते हुए संघीय सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने एक अधिसूचना संख्या 795 (ई) जारी की । 29 मार्च 2001 से भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards-BIS) का प्रमाणचिह्न बोतलबंद जल के लिए अनिवार्य हो गया । लेकिन कीटनाशकों के अवशेषों संबंधी मानदंड अभी भी अस्पष्ट हैं ।
डाउन टू अर्थ (वर्ष 11, अंक 8) में CSE की रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद अनेक समितियाँ गठित की गईं और अंततः खाद्य पदार्थों में मिलावट संबंधी नियमों में संशोधन करके कहा गया कि किसी भी कीटनाशक के अवशेष की मात्रा 0.0001 मिग्रा प्रति लीटर से और इन अवशेषों की कुल मात्रा 0.0005 मिग्रा प्रति लीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए । यह भी कि कीटनाशकों की दर्ज सीमाओं को सुनिश्चित करने के लिए नमूनों का विश्लेषण भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य परीक्षण विधियों से किया जाएगा । यह अधिसूचना 1 जनवरी 2004 से लागू हुई ।
केस अध्ययन # 5:
भारत में नदियों का प्रदूषण (River pollution in India):
भारत की लगभग सभी नदियाँ प्रदूषित हैं । इस प्रदूषण का कारण कमोबेश समान हो सकते हैं । यहाँ दामोदर नदी का एक केस अध्ययन दिया जा रहा है जो डाउन टू अर्थ में प्रकाशित हुआ था । 563 किलोमीटर लंबी दामोदर नदी झारखंड के पलामू जिले में छोटानागपुर पहाड़ियों में स्थित गाँव चंदवा के पास से आरंभ होती है ।
कोलकाता से कोई 50 किमी दक्षिण में हुगली में मिलने से पहले यह दुनिया में खनिजों की सबसे समृद्ध पट्टियों में से एक पट्टी से होकर बहती है । भारतीय उद्योग इस क्षेत्र पर बहुत अधिक निर्भर है क्योंकि हमारे देश में कोयले का 60 प्रतिशत भाग छोटानागपुर पट्टी से ही आता है ।
स्थिति संबंधी लाभों के कारण और पानी-बिजली की आसान उपलब्धता के कारण हर प्रकार के कोयला-आधारित उद्योग इस क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं । इसके अलावा, इस्पात, सीमेंट, खाद जैसे उद्योग और विस्फोटक संयंत्र भी यहाँ स्थित हैं । दामोदर नदी खनिजों, खदानों के बेकार पदार्थों और विषैले द्रवों के कारण प्रदूषित है ।
उसका जल और उसकी रेत, दोनों ही कोयले के चूरे और इन उद्योगों के अपशिष्टों से प्रदूषित हैं । दामोदर वादी में ताप-बिजली के सात संयंत्र हैं । बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल बिजली की आपूर्ति के लिए इस क्षेत्र पर लगभग पूरी तरह निर्भर हैं । ये संयंत्र न सिर्फ अत्यधिक पानी की खपत करते हैं, बल्कि वादी में अपनी राख भी डालते हैं ।
खननकार्य (Mining):
चूँकि भूमिगत खदानें बढ़ती माँग को पूरा नहीं कर सकतीं, इसलिए इस क्षेत्र में निकलनेवाले कोयले का 60 प्रतिशत भाग खुली खदानों से आता है जो भूमि को गंभीर हानि पहुँचाते हैं । कोयले के साथ निकली चट्टानों और मिट्टी का निबटारा समस्या को और अधिक बढ़ाता है ।
उद्योग (Industries) :
इस क्षेत्र के उद्योगों में अपशिष्टों के शोधन के समुचित संयंत्र नहीं हैं । कोयला आधारित बड़े उद्योगों को लें तो कुल निलंबित ठोस कणों, तेल और ग्रीज से संबंधित अधिकांश प्रदूषण धोवन संयंत्रों (washeries) से होता है । लगभग 20 प्रतिशत कोयला गाढ़े घोल के रूप में होता है जिसे बाहर के तालाबों में डाल दिया जाता है । पंक के बैठने के बाद कोयले के चूरे (अवसाद) को हाथों से जमा किया जाता है ।
चूरा वापस पाने की अनुपयुक्त विधियों के कारण अकसर तालाबों से नदी में पहुँचने वाले पानी में कोयले के चूरे और तेल की भारी मात्राएँ होती हैं जो नदी को प्रदूषित करती हैं । कोयले पर आधारित दूसरे प्रमुख प्रदूषक कोक भट्टी के संयंत्र (coke oven plants) हैं जो कोयले को ब्लास्ट भट्टियों और खरादों (foundries) में उपयोग के लायक बनाने के लिए ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में 1100० सेल्सियस तक गर्म करते हैं ।
इससे कोयले के वाष्पशील घटक उड़ जाते हैं और भट्टी में गर्म, अवाष्पशील कोक बच जाता है जिसे जल की भारी मात्रा से धोया जाता है । फिर तेल और निलंबित कणों से युक्त इस जल को नदी में छोड़ दिया जाता है ।
ताप-बिजली संयंत्रों की फ्लाई-ऐश (Fly ash from the thermal power plants):
केवल एक ताप-बिजली संयंत्र में फ्लाई-ऐश जमा करने के लिए स्थिर वैद्युतिक अवक्षेपक (electrostatic precipitator) लगाया गया है जबकि बाकी संयंत्र यांत्रिक धूल संग्राहकों से ही काम चला रहे हैं । चूँकि अधिकांश संयंत्र नदी के किनारे स्थित हैं, इसलिए फ्लाई-ऐश अंत में नदी में पहुंचती है । बॉयलरों की बाटम-ऐश में पानी मिलाकर गाढ़ा घोल बनाया जाता है जिसे फिर राख फेंकने के तालाबों में डाल दिया जाता है । अधिकांश तालाब भर चुके हैं और निकास पाइपों के मुँह बंद हो चुके हैं । इसलिए यह पंक सीधे नदी में पहुँचता है ।
प्रभाव (Effects):
नदी-और सहायक नदियाँ वादी की भारी जनसंख्या के लिए पेयजल की सबसे बड़ी स्रोत हैं । 2 अप्रैल 1990 को बोकारो इस्पात संयंत्र से कोई 2 लाख लीटर फरनेस आयल (furnace oil) बहकर नदी में चला गया । यह तेल धारा के साथ 150 किमी दूर दुर्गापुर तक चला गया । इस दुर्घटना के बाद सप्ताह भर तक 50 लाख लोगों ने प्रदूषित पानी पिया जिसमें तेल की मात्रा 0.03 मिग्रा प्रतिलीटर के स्वीकार्य स्तर की 40 से 80 गुना तक थी ।
दामोदर कार्रवाई योजना, जो प्रदूषण-निदान की एक योजना है, अपशिष्टों के निबटारे का भी एक प्रयास है । कम प्रदूषक उद्योगों और अधिक स्वच्छ प्रौद्योगिकी को अपनाना इसका एक व्यावहारिक विकल्प हो सकता है । इसके लिए सरकार की जोरदार पहल की और एक जन-आंदोलन की भी आवश्यकता है ।