कृष्णसखा उद्धव । “Biography of Udhava” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. उद्धव और कृष्ण की मित्रता ।
3. योगी उद्धव व गोपियां ।
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4. उद्धव हृदय परिवर्तन ।
5. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
कृष्णाजी के मथुरा जाने के पश्चात् उनके परममित्रों में उद्धवजी का नाम विशेष महत्त्वपूर्ण है । वे उपंग नामक यादव के पुत्र थे । श्रीकृष्ण के सखा एवं परामर्शदाता भी माने जाते हैं । वसुदेव के भाई देवनाग के पुत्र, अर्थात कृष्ण के चचेरे भाई के रूप में भी उनका परिचय दिया जाता है । वस्तुत: उद्धव परमयोगी, साधक तथा निगुर्ण ब्रह्मा के परम उपासक थे ।
2. उद्धव और कृष्ण की मित्रता:
मथुरा जाने के पश्चात् कृष्णजी वहां के राज-वैभव तथा व्यस्त जीवन में रहते हुए भी वृन्दावन भूमि, ब्रज की वीथिकाओं, ब्रजबालाओं, सखा-मित्रों, गोप-गोपियों के प्रेम को नहीं भुला पाये थे । ऐसी ही दशा गोप-गोपिका तथा सम्पूर्ण ब्रज की थी । उद्धव जब भी अपने मित्र कृष्ण की यह दशा देखते, तो उन्हें समझाते कि उन्हें अपने इस प्रेमभाव को पूरी तरह विस्मृत करना होगा ।
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कृष्ण उद्धव से हमेशा यही कहते: ”ऐसा सम्भव नहीं है । मैं ब्रजभूमि से जुड़ी हुई किसी भी जड़-चेतन वस्तु को नहीं भूला पाऊंगा ।” उद्धव कृष्ण की इस गहन प्रेमानुभूति को समझने में असमर्थ थे । अत: उन्होंने कृष्ण से यह शर्त लगायी कि उनका तथा गोपियों का उनके प्रति प्रेमभाव क्षणिक एवं मायावी है ।
वे इसकी सत्यता प्रमाणित कर सकते हैं । उनमें तथा उनके ज्ञान में इतनी शक्ति है कि गोपियां भी अपने प्रेमभाव कृष्णा को भुला देंगी । अपने मित्र उद्धव की बात सुनकर कृष्ण ने एक शर्त रखी कि तुम मेरे प्रति एक बार गोकुल जाकर इस प्रेमभाव की परीक्षा कर आओ । गर्वभरी भावना लेकर तथा निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान की गठरी लेकर उद्धव गोकुल पहुंचे ।
3. योगी उद्धव एवं गोपियां:
जब गोपियों को यह ज्ञात हुआ कि कृष्ण के परममित्र उद्धव आये हुए हैं । यह खबर पाते ही गोपियां अत्यन्त उत्साह से नन्द बाबा के आंगन में एकत्र हो गयीं । अत्यन्त आकुल-व्याकुल होकर कृष्णजी का सन्देशा जानने के लिए उत्सुक हो उठीं । सन्देशा पाते ही गोपियां और दुखी हो गयीं कि कृष्णाजी से उनका मिलन शीघ्र सम्भव नहीं है ।
कृष्ण के प्रेम तथा विरह में डूबी हुई गोपियों की विरहाकुल दशा देखकर उद्धवजी ने उन्हें सगुण ब्रह्म कृष्ण की उपासना करना छोड़कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया । उद्धव ने अत्यन्त तर्क-वितर्क एवं चतुराई से निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान को उनके जीवन की सार्थकता एवं शान्ति के लिए उपयुक्त बताया ।
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यह सुनते ही गोपियों ने उद्धवजी को अपनी वाग्विदग्धता से निरूत्तर-सा कर दिया ।
उन्होंने कहा:
”हे उद्धव ! मन न भये दस बीस, एक हुतो सो गयो श्याम संग, को आराधो ईश ।”
अर्थात् हे उद्धव ! हमारे पास कोई दस या बीस तो मन हैं नहीं । एक ही मन था, वह तो कृष्ण के साथ चला गया । ऐसे में हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना कैसे करें ? हम तो कृष्ण की उपासना करती हुईं करोड़ों वर्षो तक उनकी प्रतीक्षा कर लेंगी ।
उद्धव पर व्यंग्य उपालम्भ करती हुई कहती हैं कि तुम तो श्यामसुन्दर के सखा हो । फिर भी अपने मित्र की शक्ति व प्रेम छोड़कर निर्गुण ब्रह्म का उपदेश दे रहे हो ? हे उद्धव ! हम उस सम्पूर्ण योगों के स्वामी योगेश्वर कृष्ण के बिना और किसी की उपासना करने में असमर्थ हैं ।
वे कहती हैं:
हे उद्धव ! तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मा की कौन हैं माता और कौन हैं पिता । उनकी क्या लीलाएं हैं । हमें समझाओ; क्योंकि हम तो अपने प्रिय कृष्ण के विषय में सब कुछ जानती हैं । तुम निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान की कौन-सी गठरी लेकर आये हो? यदि हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की भक्ति करना भी चाहें, तो हमें कौन-सा फल मिलेगा ।
तुम्हारे इस मूली के पत्तों की भक्ति के बदले {निर्गुण ब्रह्मा की भक्ति} तुम्हें अमृत क्यो दें ? अमृत को छोडकर कड़वा नीम क्यों लें ? अर्थात् कृष्ण की भक्ति के बदले में हम निर्गुण ब्रह्मा की भक्ति लेकर घाटे का सौदा क्यों करें ?
जाओ ! योगिनियों को उपदेश दो ।
ऊधौ मन नहिं हाथ हमारे ।………
मन मै रहियो नाहि नं ठौर ।।
ऊधौ भली भई ब्रज आये ।………………..
मधुकर भलि कर आये ।
ऊधौ जोग जोग हम नाहीं ।…………..
आयौ घोष बड़ौ व्यौपारी ।।
हमारै हरि हारिल की लकड़ी ।
कहकर उद्धव को अपने ज्ञान तथा भक्ति के प्रेमभाव और तर्क-वितर्क से निरूत्तर कर देती हैं कि उद्धव का सारा का सारा अभिमान ही जाता रहा । कृष्ण ने उद्धव के इसी अभिमान को जानकर उसका खण्डन करने के लिए ही उसे ब्रजभूमि भेजा था । कृष्ण के प्रति अविचल, अटूट, एकनिष्ठ, अपार, अवर्णनीय प्रेमभाव को देखकर उद्धवजी भी कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त होकर मथुरा लौटते हैं ।
4. उद्धव का हृदय परिवर्तन:
गोपियों के प्रेमभाव और उनके पत्र को लेकर उद्धव मथुरा लौटने लगे थे । उनके निर्गुण ब्रह्मज्ञान का सारा घमण्ड चूर-चूर हो चुका था । कृष्णजी के दूत बनकर उमये थे । अब तो वे कृष्ण के साथ-साथ गोपियों के भी भक्त वन चुके थे । राधा तथा गोपियों की विरह-वेदना से व्यथित स्थिति को देखकर उद्धवजी शी बहुत दुखी थे ।
उन्होंने कृष्ण के वियोग में परमदुखियारी गायों को भी देखा था, जो कृष्ण द्वारा गोदोहन किये स्थानों को जाकर सूंघती थीं और अत्यन्त आतुर होकर पछाड़ खाकर गिर जाती थीं । गोपियों की तरह गायों की दशा भी बावली-सी थी ।
यह सब अनुभव कर उद्धवजी का हृदय पूर्णत: परिवर्तित हो गया था । अब तो वे यशोदा, राधा, गोप-गोपिकाओं तथा सम्पूर्ण ब्रजभूमि का सन्देशा लेकर कृष्ण को एक बार ब्रज बुलाने हेतु सोचते हुए चल पड़े थे ।
5. उपसंहार:
कृष्णाजी लौकिक अवतार में जहां अपनी कर्मभूमि, जन्मभूमि, ब्रजभूमि से अत्यन्त प्रेम करते थे, वहीं अलौकिक स्थिति में वे सम्पूर्ण मानव-जाति से प्रेम करते थे । मथुरा आकर मानव-जाति को कंस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाना उनका परम कर्तव्य था । वहीं उद्धव के रूप में परमज्ञानी, प्रकाण्ड पण्डित, निर्गुणोपासक उद्धव के ज्ञान अभिमान को तोड़ना और उन्हें भक्ति का सहज मार्ग दिखाना उनका परम धर्म था ।