कृष्णसखा सुदामा । “Biography of Sudama” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. कृष्ण के बालसखा सुदामा और उनका चरित्र ।
3. सुदामाजी की दरिद्रता ।
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4. सुदामाजी का धर्मसंकट ।
5. द्वारिका नगरी का वैभव व सुदामाजी की दशा ।
6. श्रीकृष्ण का सुदामाजी के प्रति प्रेमभाव ।
7. सुदामाजी की खीझ ।
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8. सुदामाजी का वैभव ।
9. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
इस संसार में मित्रधर्म का निर्वाह करने वाले बहुत हुए हैं, किन्तु एक अति वैभव शक्ति सम्पन्न तथा एक अत्यन्त ही निर्धन, दरिद्र ब्राह्मण की मित्रता की अनूठी मिसाल कहीं न होगी । हमारी भारतीय संस्कृति में कृष्ण और सुदामा की मित्रता एक ऐसी ही अद्वितीय घटना है ।
2. कृष्ण के बालसखा सुदामा और उनका चरित्र:
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सुदामा एक गरीब ब्राह्मण थे, जो सांदीपनि गुरु के आश्रम में श्रीकृष्णजी के साथ पढ़ा करते थे । कृष्णजी के साथ सांदीपनि गुरु के आश्रम में रहते हुए उन्होंने भी समस्त प्रकार की विद्याओं का अध्ययन किया था । सुदामाजी अपनी ब्राह्मणवृत्ति के अनुसार खाने-पीने की चीजों में विशेष रुचि रखते थे ।
एक बार तो गरुमाता ने उन्हें यह कहकर खाने के लिए चने दिये थे कि गुरुसेवा का कार्य सम्पन्न होने के बाद वन में तुम और कृष्ण इसे गिलकर बराबरी में बांटकर खा लेना । किन्तु सुदामा ने ऐसा नहीं
किया । सारे चने स्वयं ही खा लिये । पोटली को छिपाते ही रहे ।
कृष्ण को बाद में गुरुमाता से इस घटना का पता चला, तो वे मित्र की ऐसी वृति पर मुसकराकर रह गये । वे अपने इस बालसखा से क्या कहते ? क्योंकि खेलने-कूदने, जलक्रीड़ा, वनविहार आदि में तो वे कृष्णजी के साथ ही रहा करते थे । इधर शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात् कृष्णाजी को आततायी कंस का अभिमान चूर करने के लिए मथुरा जाना पड़ा ।
उधर सुदामा ने शिक्षा पूरी होने के उपरान्त अपनी जन्मभूमि लौटकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश ले लिया । उनकी पत्नी अत्यन्त पतिव्रता, लज्जाशील, सुशील और सुबुद्धिशालिनी नारी थी । पतिसेवा में पूर्ण निष्ठा उघैर अनुराग रखती थी । एक दिन सुदामा ने अपनी पत्नी को बताया कि मथुरा के अधिपति श्रीकृष्ण उनके बालसखा हैं ।
वे दोनों सहपाठी थे । यह जानकर उनकी पत्नी ने सुदामाजी से कहा कि आप द्वारिका जाइये । आपके मित्र तो अनाथों के नाथ हैं और ब्राह्माणों पर विशेष कृपादृष्टि रखते हैं । करूणानिधि कृष्ण हमारी दरिद्रता को अवश्य ही दूर करेंगे ।
सुदामाजी ने अपनी पली को समझाते हुए कहा: “मैं ब्राह्मण होने के नाते धन-वैभव, सम्पत्ति की कोई इच्छा नहीं रखता । मेरे हृदय में तो ईश्वर के चरणकमल विद्यमान हैं । ब्राह्मण का धर्म और धन तो केवल भिक्षा मांगना है ।”
3. सुदामाजी की दरिद्रता:
सुदामजी की पत्नी ने सुदामाजी से कहा: ”हे स्वामी । यदि हमें पेट भरने के लिए मोटे चावल भी खाने को आसानी से मिल जाते, तो मैं दूध-दही और मिठाई की इच्छा तो नहीं करती हूं । अपनी दशा तो ऐसी है कि शीत त्ररतु भी ठिठुरते-ठिठुरते बीतती है ।
निर्धनता और अभावभरी इस दशा में तो कभी घर से टूटी हुई कठौती और फूटा हुआ तवा भी बाहर नहीं गया है, अर्थात् टूटे-फूटे बर्तनों से ही काम चलता पड़ता है । ऐसी दरिद्र अवस्था के कारण आपको मैं बलपूर्वक द्वारिका जाने के लिए कह रही हूं ।”
4. सुदामाजी का धर्मसंकट:
सुदामाजी अपनी पत्नी के इस हठ को देखकर कहने लगे: ”हे ब्राह्मणी ! तूने तो आठों पहर यही रट लगा रखी है: द्वारिका जाओ ! द्वारिका जाओ ! और कृष्ण से मिलो । यदि मैं तेरा कहना नहीं मानूगा, तो तुझे बड़ा दुःख होगा । अपनी इस दीन-हीन विवश दशा को देखकर सोचता हूं कि कैसे जाऊं ?
उनके महल पर खड़े द्वारपाल मुझे अन्दर प्रवेश नहीं करने देंगे । यदि जाऊं भी, तो मेरे पास उन्हें भेट देने के लिए पांच सुपारी तो क्या, चावल के चार दाने भी नहीं हैं ।” ऐसा सुनते ही ब्राह्मणी अपनी पड़ोसन के पास जा पहुंची और उससे पाव सेर चावल उधार लेकर सुदामाजी को देते हुए द्वारिका जाने हेतु तैयार किया ।
5. द्वारिका नगरी का वैभव व सुदामाजी की दशा:
स्वर्णनगरी द्वारिका को देखकर सुदामाजी कि आंखें चकाचौंध से भर गयीं । वहां के भवन एक से बढकर एक वैभवशाली व आनन्ददायक थे । वहां राजमहल के बाहर खड़े पहरेदार देवताओं की तरह सजे-धजे वैभवशाली लग रहे थे ।
ब्राह्मण सुदामा ने पहरेदार से पूछा: ”दीनदयालु श्रीकृष्ण का भवन कौन-सा है ?” पहरेदार दौड़कर श्रीकृष्णजी के पास जाकर यह सूचना पहुचा आया कि एक ब्राह्मण, जिसके सिर पर न तो पगड़ी है, न शरीर पर ढीला कुरता । एक फटी-सी धोती और झीना-सा दुपट्टा ओढ़े हुए है । उसके पैरों में जूते-चप्पल तक नहीं है ।
ऐसा एक दीन-दुखी, दुर्बल ब्राह्माण द्वार पर खड़ा हुआ यहां के बैभव को देखकर चकित हो रहा है और हे दीनदयाल! आपका पता पूछते हुए अपना नाम सुदामा पाण्डे बताता है ।
6. श्रीकृष्ण का सुदामा के प्रति प्रेमभाव:
द्वारपाल से सुदामा पाण्डे का विवरण प्राप्त करते ही श्रीकृष्ण ने अपना राजकाज वहीं छोड़ दिया और अपने मित्र के प्रति अपार प्रेमभाव लिये दौड़ पड़े । सुदामा को देखते ही उनके पैर पकड़ लिये और अपने हृदय से लगा लिया ।
नेत्रों में आंसू लिये करुणार्द्र भाव से कृष्ण ने उनका कुशलक्षेम पूछा और कहा: ”हे मित्र । तुम्हारे पैरों की पाटी हुई बिबाइयों और कांटों से भरे जाल ने तुम्हारे पैरों को कितनी पीड़ा दी होगी । हाय मित्र ! तुमने जीवन में इतना कष्ट सहन किया । तुम इतने दिनों तक कहां थे ।”
फिर अश्रु तथा जल से उनके पैरों को धो दिया । उनके मित्र के आने की खबर जानकर श्रीकृष्ण की पटरानियों ने सुदामाजी के पैर धोये तथा उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया । श्रीकृष्ण ने अपने मित्र से भाभी द्वारा दिये गये तंदुल {कच्चे चावल} की प्रेमपूर्वक भेंट मांगी ।
संकोचवश सुदामाजी ने पोटली खोली । श्रीकृष्ण सुदामाजी की पत्नी द्वारा दिये गये चावलों को प्रेमपूर्वक खाने लगे । उनकी पटरानियों ने भी उसे प्रेमपूर्वक खाया । श्रीकृष्ण को जो कुछ देना था, वे सुदामाजी को दे चुके थे ।
7. सुदामाजी की खीझ:
खाली हाथ लौटते समय सुदामाजी अत्यन्त निराशा और क्षोभ से भरे हुए यह बड़बड़ाते हुए जा रहे थे कि श्रीकृष्णा का इतना आदर और सम्मान से उमंगित होकर मुझसे मिलना और मुझे कुछ न देना, ये दोनों विरोधाभास कैसे हो सकते हैं ?
श्रीकृष्ण के प्रति खीझ व्यक्त करते हुए वे मन-ही-मन बडबडाते हुए कह रहे थे-यह वही कृष्ण है, जो थोड़े-से माखन के लिए घर-घर जाकर चोरी किया करता था । आज राजा बनकर इतना अधिक घमण्डी हो गया है । भला याचक माखनचोर दाता कैसे हो सकता है ? मैं तो आना ही नहीं चाहता था । मेरी पत्नी के जिद से आया हूं । अब जाकर उससे कहूंगा कि लो इतना सारा धन मिला है, इसे समेटो ।”
8. सुदामाजी का वैभव:
जब सुदामाजी अपने गांव पहुंचे, तो पाया कि वहां भी द्वारिकानगरी जैसे वैभवयुक्त रचर्णमण्डित, भव्य भवन खड़े हुए हैं । कहीं उन्हें मतिभ्रम तो नहीं हो गया ? वे रास्ता तो नहीं भूल आये ? अपनी झोपड़ी के स्थान पर पहुंचते ही देखा कि उनकी पत्नी सोने-चांदी के बहुमूल्य रत्नजडित आभूषणों को धारण किये हुए सुन्दर वस्त्रों में सुसज्जित खड़ी है ।
उसके समीप बहुत-सी दासियां भी हैं । महल के दरवाजे पर हाथी, घोड़ों पर सुसज्जित महावत सेवा के लिए तत्पर हैं । कहां तो उन्हें खाने के लिए मोटे चावल नसीब नहीं होते थे, आज तो प्रभु की कृपा से इतना वैभव-सम्पन्न उन्हें मिला था । वे भी उस नगरी के राजा बन गये थे ।
9. उपसंहार:
कृष्ण एवं सुदामाजी की मित्रता की यह कथा अत्यन्त भावपूर्ण और मार्मिक है, जिसमें श्रीकृष्ण के अतुलनीय मैत्रीभाव का परिचय मिलता है । साथ ही सुदामाजी के भी मित्रभाव का सहज चित्रण है ।
भारतीय संस्कृति में आज भी इनके मैत्रीभाव का उदाहरण “सुदामा और कृष्ण” की मित्रता एक मुहावरे के रूप में आम जीवन में स्मरण की जाती है । कालान्तर में सुदामा को कृष्ण के विष्णु अवतारी अलौकिक रूप का ज्ञान हुआ और वे उन्हीं की भक्ति-साधना में अपने जीवन का समय बिताने लगे ।