शरतचन्द्र । Biography of Sharat Chandra in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन वृत एवं साहित्य कर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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शरतचन्द्र बंगला साहित्य के ऐसे अमर, महान्, विलक्षण, असाधारण प्रतिभा के धनी साहित्यकार रहे हैं, जिनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं और मर्म को उद्वेलित करने की क्षमता है । उनकी रचनाएं मानवीय व्यथा-कथा का जीवन्त चित्रण हैं ।
उनकी रचनाएं देशी ही नहीं, विदेशी भाषाओं में अनुदित होकर चर्चित हुईं । उन्होंने बंगला साहित्य के माध्यम से हिन्दी प्रेमी पाठकों की भी सेता की है । जितने पाठक उनके बंगला के हैं, उतने ही हिन्दी तथा अन्य भाषाओं के हैं । वे कालजयी रचनाकार है ।
2. जीवन वृत एवं रचनाकर्म:
शरतचन्द्र का पूरा नाम शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय था । 15 सितम्बर सन् 1876 में उनका जन्म हुगली के समीप ग्राम देवानन्दपुर में हुआ था । उनके पिता मोतीलाल से उन्हें साहित्यिक संस्कार विरासत में मिले थे । उन्होंने अपना अधिकांश समय भागलपुर में व्यतीत किया था ।
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17 वर्ष की अवस्था में उन्होंने लिखना शुरू किया था, किन्तु उनकी रचनाओं को प्रारम्भिक दौर में उतना प्रोत्साहन नहीं मिला, तो उन्होंने 1 वर्ष तक लेखन कार्य को पूरी तरह विराम दे दिया था । बाद में उन्हें अपने पढ़े- लिखे होने की सार्थकता लेखन में ही नजर आयी । उन्होंने अपनी पहली कहानी ”मन्दिर” 1909 में लिखी थी ।
उनका पहला उपन्यास “बड़ी दीदी” था । सन् 1900 में उन्होंने संन्यास का विचार कर देश-भर का भ्रमण किया । वहां से वे रंगून चले गये 1 सन् 1912 में नौकरी की । ढाका के बंगीय साहित्य सभा के 1926 में सभापति बने । कलकत्ता विश्वेविद्यालय ने उन्हें “जगल्लारिणी” स्वर्ण पदक से सम्मानित किया ।
ढाका विश्वविद्यालय ने उन्हें 1934 में डी॰लिट॰ की उपाधि से सम्मानित किया । उनके उपन्यासों में ”विप्रदास”, “शेष प्रश्न”, ”दत्ता”, “गृहदाह”, ”परिणिता”, ”देवदास”, “चन्द्रनाथ”, ”श्रीकान्त”, ”पण्डितजी”, “बिंदो का लड़का”, ”ब्राह्मण की बेटी”, “बैंकण्ठ का दानपत्र”, ”आखिरी परिचय”, ”नवविधान” प्रमुख हैं ।
उनकी प्रमुख कहानियों में “अभागिनी का स्वर्ग”, “भला-बुरा”, “हरिचरण”, ”प्रकाश और छाया” प्रमुख हैं । उन्होंने ‘विजया’ नाटक के साथ-साथ कई फुटकर निबन्ध भी लिखे हैं । उनकी मृत्यु 16 जनवरी, 1938 में कलकत्ता के नर्सिंग होम में हुई । शरतचन्द्र की रचनाओं में भारतीय नारियों के चरित्र की ईमानदार अभिव्यक्ति मिलती है ।
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उनकी नारियां जहां चारित्रिक दृष्टि से उदात्त है, वहीं उनकी कुछ मानवीय दुर्बलताएं भी हैं । राग, द्वेष से भरी हुई नारियों के साथ-साथ उन्होंने नारियों के स्वभाव का विभिन्न कोणों से न केवल गहराई से अध्ययन किया है, अपितु उन्हें जाना और पहबाना भी है ।
अनुभवजन्य घटनाओं को उन्होंने यथार्थ एवं आदर्शवाद से प्रेरित होकर लिखा है । मंझली दीदी हो या फिर बड़ी दीदी, पारो हो या चन्द्रमुखी, नारी सुलभ भावनाओं की उत्कृष्ट एवं मनोवैइघिनक अभिव्यक्ति उनके उपन्यासों में हुई है । पुरुष पात्रों के मनोवैज्ञानिक चित्रण में ये उतने ही सिद्धहस्त हैं ।
शरतचन्द्र की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरल, सहज भाषा है, जिसमें ऐसा प्रवाह और प्रभाव है कि पाठक रसविभोर होकर उसमें बहता सा चलता है । भाषा में शब्दों का कहीं आडम्बर नहीं है । जो कुछ भी लिखा ह्रै वह अनुभूतिजन्य है ।
शरतचन्द्र महान् देशभक्त भी थे । उन्होंने गांधीजी के आदर्शो को भी अपनाया था । वे हमेशा स्वदेशी वस्त्र धारण करते थे । गांधीजी के आवाहन पर उन्होंने चरखा कातना भी सीखा था । वे हिन्दू और मुस्लिम एकता के समर्थक हो । शरतचन्द्र एक महामानव भी थे ।
3. उपसंहार:
शरतचन्द्र बंगला साहित्य के महान् कथाशिल्पी रहे हैं । बाद की पीढ़ियों ने उनके लेखन को अपना आदर्श बनाया । उनकी अधिकतर रचनाओं पर फिल्मों और धारावाहिकों का निर्माण हुआ है, जिनमें देवदास, परिणिता, मंझली दीदी तथा धारावाहिकों में चरित्रहीन, श्रीकान्त, शेष प्रश्न प्रमुख है ।
शरतचन्द्र के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था: “शरतचन्द्र का साहित्य और कर्म तथा उनके जीवन की प्रेरणा हमारे जीवन में हमेशा अमर रहेगी ।” शरत् का साहित्य अपनी अद्वितीय शैली के कारण युगों-युगों तक पढ़ा जाता रहेगा ।