रामधारी सिंह दिनकर । Biography of Ramdhari Singh Dinkar in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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डॉ॰ नगेन्द्र ने कहा है कि ”दिनकर में संवेदना और विचार का सुन्दर समन्वय है । दिनकर ने राष्ट्रीयता की पहचान को चिन्तन, परीक्षण तथा आत्मालोचन का स्वरूप ही प्रदान नहीं किया, वरन् राष्ट्रीयता को सार्वभौमिक मानवता के रूप में विकसित होने का स्वप्न भी देखा है ।
यह विकास बुद्धि के ऊपर सहृदय के शासन होने पर सम्भव है ।” दिनकर ने अपनी कविता का विषय “राष्ट्रीय और सामाजिक यथार्थ” को बनाया । वे प्रगतिवाद के ओजस्वी कवियों में से एक थे ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म:
रामाधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार राज्य के मुंगेर जनपद में दिया नामक ग्राम में सन् 1908 में एक सामान्य कृषक परिवार में हुओ था । पटना विश्वविद्यालय से बी॰ए॰ आनर्स तथा इतिहास में एम॰ए॰ करने के बाद वे सरकारी सेवा में तत्पर हो गये । सन् 1947 में उन्होंने यहां से त्यागपत्र दे दिया और लगटसिंह महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी रहे ।
फिर वे भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनाये गये । अनेक वर्षो तक भारतीय सरकार के हिन्दी सलाहकार रहे । सन् 1952 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किये गये । सन् 1955 में पोलैण्ड की राजधानी बारसा में आयोजित कवि सम्मेलन में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया ।
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सन् 1959 में राष्ट्रपतिजी ने उनको ”पद्मविभूषण” की उपाधि से विभूषित किया । 1967 में उनको साहित्य अकादमी ने “संस्कृति के चार अध्याय” कृति हेतु पुरस्कृत किया । ”उर्वशी” पर उनको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया । 25 अप्रैल 1974 को वे हृदयाघात से चल बसे ।
दिनकरजी की काव्य कृतियों में- ‘रेणुका’ ‘हुंकार’, ‘कुरूक्षेत्र’, ‘रश्मिरथी’, ‘प्रणभंग’ प्रमुख हैं । ”नीम के पत्ते”, ”सीपी और शंख”, ”अर्द्धनारीश्वर”, ”ठेठ हिन्दी का ठाठ”, “अधखिला फूल” उनकी गद्या कृतियां हैं । दिनकरजी ने जब साहित्यिक क्षेत्र में प्रवेश किया था, तब उनकी रचनाओं में प्रेम और सौन्दर्य के मादक चित्र मिलते थे ।
बाद की रचनाओं में देशप्रेम और राष्ट्रीयता का शंखनाद ही नहीं मिलता, वरन् उनमें विद्रोह का स्वर भी व्याप्त था । इतिहास का विद्यार्थी होने के नाते उन्होंने ऐतिहासिक और पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही ।
स्वाधीनता संग्राम की जागृति के लिए ”हिमालय” और “दिल्ली” जैसी कविताएं लिखीं :
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वैभव की दीवानी दिल्ली / कृषक मेघ की रानी दिल्ली /
अनाचार, अपमान, व्यंग्य की / चुभती हुई कहानी दिल्ली ।
अपने ही पति की समाधि पर कुलकटे / तू छवि में इतराती दिल्ली ।
पड़ोसी परदेसी संग गलबाहीं दे / मन में है फूली नहीं समाती दिल्ली ।
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मान-अपमान की पीड़ा देने वाली दिल्ली के साथ-साथ कवि सर्वहारा वर्ग की पीडा को भूल जाने वाले शोषकों पर व्यग्य करता है:
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बच्चे अकुलाते हैं ।
मा की गोदी से ठिठुर-ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं ।
मालिक तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं ।
बाप-बेटा भूख से बेहाल हो, बेच रहा घर की लाज ।।
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भाग्य की अपेक्षा कर्म की श्रेष्ठता पर बल देते हुए उन्होंने कुरूक्षेत्र में लिखा है:
ब्रह्मा से लिखा भाग्य में नहीं, मनुज नहीं लाया है,
जो कुछ भी है, अपने भुजबल से ही पाया है ।
ब्रह्मा का अभिलेख पड़ा करते हैं, निरूद्यामी प्राणी ।
धोते वीर कुअंक भाल का, बहा भ्रवों से पानी ।।
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गांधीजी की तरह कवि ने सर्वोदय और समान विकास की बात कही है:
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण ।
बाधारहित विकास, बमुक्त आकांक्षाओं से जीवन ।।
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दिनकरजी की भाषा विशुद्ध खड़ी बोली है, जिन पर उनका पूर्ण अधिकार भाषा भावानुकूल बदलती रहती है । भाषा-सरल और प्रवाहमयी है । आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्दों के साथ-साथ उर्दू फारसी के शब्दों का प्रयोग हुआ है । इसमें लाक्षणिकता, आलंकारिता और प्रतीकात्मकता है । आवश्यकतानुसार सभी गुणों और शक्तियों का प्रयोग भी उन्होंने किया है ।
3. उपसंहार:
दिनकरजी एक कवि ही नहीं, एक निबन्धकार और उपन्यासकार भी थे । ”संस्कृति के चार अध्याय” में देश की सामाजिक संस्कृति की विशद व्याख्या की है, जहा दिनकरजी की राष्ट्रीयता अन्तर्राष्ट्रीयता का स्पर्श कर जाती है ।