कर्ण । “Biography of Karna” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. कर्ण का अवतरण एवं जीवन संघर्ष ।
3. कर्ण की सेवाभक्ति एवं सहनशक्ति ।
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4. कर्ण का वचन पालन ।
5. कर्ण की दानवीरता ।
6. कर्ण की विनम्रता ।
7. कर्ण का सच्चा धर्म ।
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8. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
इस संसार में कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आदर्श पर डिगे रहकर अपने अस्तित्व की पहचान करते हैं । यह भी कहा जाता है कि प्रतिभा के प्रसून विपरीत परिरिथतियों में ही प्रस्फुटित होते हैं । ऐसी प्रतिभा को कालजयी प्रतिभा कहा जाये, तो कुछ गलत नहीं होगा ।
वह प्रतिभा थी: दानवीर, वचनपालक, कष्ट-सहिष्णु विडाम्र, गित्रहितैषी, सेवनका और सहनशील कुली पुत्र कर्ण की । कर्ण की समूवी जीवनगाथा उनके भाग्य की क्रूर नियति की गाथा है, जोसमरत सुख-सुविधाओं, मान-संम्मान का अधिकारी होकर भी उन सबरसे वंचित रहा । अभागे कर्ण की जीवनगाथा अपने विलक्षण व्यक्तित्व के कारण महाभारत के सभी चरित्रो में अनूठी है ।
2. कर्ण का अवतरण एवं जीवन संघर्ष:
कर्ण कुली के पुत्र थे । दुर्वासा ऋषि ने कुन्ती की सेवक्किन से प्रसन्न होकर उन्हें एक मन्त्र दिया था, जिसका ध्यान करते ही उन्हें तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी । कौतूहलवश कुन्ती ने कौमार्यावस्था में ही उस मन्त्र का जाप कर डाला । परिणामस्वरूप सूर्यपुत्र कर्ण का जन्म हुआ । समाज के भय से कुली ने उस पुत्र को एक पेटी में रखकर नदी में बहा दिया ।
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दित्य कवच और कुण्डल से अलंकृत वह तेजस्वी शिशु राजा धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ के हाथ लगा । अधिरथ सूत जाति के थे । उनकी पत्नी राधा ने उस तेजस्वी बालक का लालन-पालन किया । वे उन्हीं के पुत्र कहे जाने लगे ।
एक सारथी के यहां पालित-पोषित कर्ण राजमहलों की सुख-सुविधाओं से वंचित होते हुए भी राधा और अधिरथ के अतिशय वात्सल्य में शास्त्र एवं शस्त्र विद्या सीखने में सदैव तत्पर रहते थे । चूंकि वे सूर्यपुत्र थे, अत: उनकी महत्त्वाकांक्षा एवं उनका तेजस्वी व्यक्तित्व हमेशा उन्हें अपने सामर्थ्य से बाहर जाकर कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित करता ।
धनुर्विद्या सीखते समय अर्जन के साथ उनकी प्रतिद्वन्हिता हमेशा रही । कर्ण अर्जुन से सदैव ही आगे रहते, किन्तु सूत पुत्र कर्ण की इतनी योग्यता और प्रतिभा के बाद भी राजपुत्रों के साथ बैठने तक का अधिकार उन्हें नहीं था ।
इस उपेक्षा ने कर्ण के भीतर एक ऐसी चुनौती विकसित की, जिसके बल से उन्होंने धनुर्विद्या में भी असाधारण योग्यत अर्जित कर ली । इस योग्यता को भी आचार्य द्रोण ने बहुत समय बाद पहचाना । एक बार द्रोणाचार्य ने अपने द्वारा पारंगत शिष्यों की शस्त्र-विद्या का प्रदर्शन रखा ।
अर्जुन ने दर्शकों के सामने आकर एक से एक कौशल दिखाये, जिसमें दिव्यास्त्र, आग्नेयास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, भौमास्त्र आदि के प्रदर्शन से जनता तथा पाण्डवजन रोमांचित व आश्चर्यचकित थे । तभी मुप्ज द्वार से तेजस्वी कर्ण ने अर्जुन को चुनौती देते हुए उन सभी कौशलों का प्रदर्शन कर दिया, जिसको अर्जुन ने करके दिखलाया था ।
दुर्योधन ने तो इस कौशल पर उसका स्वागत करते हुए उसे हृदय से लगा लिया और अपना मित्र घोषित करते हुए राजमहल में रहने हेतु बुलवा लिया । कर्ण और अर्जुन का एक बार फिर द्वन्द्व हुआ, जिसमें कुन्ती ने कर्ण के शरीर का वह तेजस्वी कुण्डल देखा । सूर्यपुत्र कर्ण उनका ही पुत्र है, यह जानकर वह अचेत होकर गिर पड़ी ।
द्रोणाचार्य ने र्क्त्पा को नीच कुलोत्पन्न कहकर अपमानित किया । सभी पाण्डव पुत्र उनका उपहास करने लगे थे । दुर्योधन से यह अपमान देखा नहीं गया । उसने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर उनका राज्याभिषेक कर दिया । दुर्योधन ने कहा: ”आचार्य ! यह अवश्य ही किसी केधे कुल में जन्मा है; क्योंकि हिरणी के पेट से कभी सिंह पैदा नहीं हो सकता ।” उत्सव समाज हो चुका था ।
3. कर्ण की सेवायाक्ति एवं सहनशक्ति:
उत्सव की समाप्ति के पश्चात् उपहास से व्यथित कर्ण परशुराम की शरण में चले गये । ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने के लिए कर्ण ने अपना गोत्र मृगुवंशी बताया । अविचल गुरुसेवा के कारण परशुराम का हृदय कर्ण ने जीतकर ब्रह्मास्त्र प्राप्त कर लिया था । एक दिन की बात है । परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे ।
तभी कर्ण की जांघ पर एक जहरीले कीड़े ने जोर का डंक मारा जिसके फलस्वरूप रक्त की धारा बह निकली । कर्ण ने उफ तक न करते हुए पीड़ा को इसलिए सहन किया, ताकि गुरु की नींद में खलल न पड़े और जांघ को हिलाया तक नहीं । नींद खुलने पर रक्त के धब्ये देखकर परशुराम ने पूछा, तो कर्ण ने सारा वृतान्त कह डाला ।
परशुराम ने कर्ण से कहा: “धन्य है तुम्हारी गुरुसेवा और सहनशीलता । तुम निश्चय की कोई क्षत्रिय बालक हो ।” कर्ण ने सचाई कह डाली । क्रोधी परशुराम ने कर्ण को श्राप दे डाला कि: “मूर्ख ! तुम्हें यह ब्रह्मास्त्र अपने समकक्ष योद्धा के साथ युद्ध करते तक याद रहेगा, किन्तु अवश्यकता पड़ने पर तुम इसे भूल जाओगे ।
तुम्हारे जैसे असत्यभाषी के लिए आश्रम में कोई जगह नहीं है ।” गुरु के चरणों में अन्तिम बार शीश नवाकर कर्ण आश्रम से बाहर चला गया ।
4. कर्ण का वचन पालन:
महाभारत के युद्ध में कर्ण के हाथों अर्जुन की मृत्यु की आशंका से भयभीत कुन्ती ने कर्ण से वचन मांगा कि: ”तुम कौरवों को छोड़कर पाण्डवों के पक्ष में आ जाओ । तुम रद्वाराज अधिरथ के पुत्र नहीं, सूर्यपुत्र
हो ।” यह सुनकर कर्ण सन्न रह गया ।
फिर भी उसने अपनी माता से कहा: ”मां ! तूने मेरे साथ बड़ा ही अन्याय किया है । जीवन-भर इसके फलस्वरूप मैंने कितनी यन्त्रणा, अपमान तथा लोगों का उपहास सहन किया । तब आपका मातृत्व कहा सो गया था ? आपने मेरे साथ जो कुछ भी किया है, वह तो कोई अपने शत्रु के साथ भी नहीं करेगा ।”
कुन्ती ने कहा: ”कर्ण, मैं तेरे प्रति माता के कर्तव्य का पालन न करने की वजह से ग्लानि का अनुभव करती हूं ।” ऐसा कहकर कुन्ती खाली हाथ जाने को उद्यत हुई । कर्ण ने कहा: ”मां ! ठहरो, मेरे पास से तुम खाली हाथ नहीं लौटोगी । मैं तुम्हें वचन देता हूं कि मैं तुम्हारे एक पुत्र अर्जुन को छोड़कर किसी और पुत्र को नहीं मारूंगा ।
यदि अर्जुन बच गया, तो मैं नहीं । यदि मैं बच गया, तो अर्जुन नहीं । किसी भी स्थिति में तुम्हारे पांच पुत्र बने रहेंगे ।” युद्धक्षेत्र में जब कर्ण रथ का धंसा हुआ पहिया निकाल रहा था, तब अर्जुन ने दिव्यास्त्रों की वर्षा करते हुए कर्ण का वध कर डाला । इस तरह कर्ण ने अपने सामर्थ्य के होते हुए भी कुन्ती के पुत्रों को घायल करके छोड़ दिया, पर किसी का वध न करके अपनी माता को दिये हुए वचन का पालन किया ।
5. कर्ण की दानवीरता:
देवताओं के राजा इन्द्र ने अर्जुन के एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी कर्ण के शक्ति और प्रभाव को कम करने के लिए कर्ण से कवच और कुण्डल छीनने की एक योजना बनायी । सूर्यदेव ने स्वप्न में दर्शन देकर कर्ण से कहा: ”ये कवच कुण्डल तुम्हारे प्राणरक्षक हैं, इसे तुम कभी किसी को न देना । दान के बदले तुम ब्राह्मण वेशधारी से अमोघ शक्ति मांग लेना ।”
भविष्यवाणी के अनुसार ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र ने कर्ण से कुण्डल और कवच मांगा । कर्ण ने कहा: ”यह मेरे शरीर का अंग हैं, यदि इसे मैं आपको दे दूंगा, तो जीवित कैसे रहूंगा । मैंने अपने मित्र दुर्योधन का साथ निभाने का वचन दिया है । उस मित्र का उपकार चुकाने के लिए मुझे जीवित रहना पड़ेगा ।” किन्तु ब्राह्मण की हठ के आगे कर्ण ने कवच और कुण्डल दे दिये तथा इन्द्र से अमोघ शक्ति मांग ली ।
कुन्ती को दिये गये वचनानुसार इसका उपयोग एक बार करना था । अत: कर्ण ने इसका उपयोग न करते हुए उसे निरर्थक कर दिया और अपने जन्मजात कवच-कुण्डल अपने शरीर से काटकर दान में इन्द्र को दे दिये । कर्ण की विनम्रता-कर्ण वीर और महादानी होने के साथ-साथ विनम्र भी थे ।
भीष्म को शरशैया पर देखकर दुःख और ग्लानि से भरे उनके पास हाथ जोड़कर खड़े हुए और बोले: ”मैं अधिरथ पुत्र आपसे अपने किये हुए जाने-अनजाने अपराधों के लिए क्षमा चाहता हूं ।” कर्ण की इस विनम्रता से प्रभावित होकर भीष्म ने कहा: ”तुम सूर्यपुत्र हो । कुली तुम्हारी माता है । तुम अर्जुन की तरह पराक्रमी, वीर हो । दुष्ट तुम्हारा बल और संगति पाकर भरत वंश का विनाश कर रहे हैं । तुम्हें विनाश से बचाकर इस सृष्टि की रचना करनी है ।” कर्ण ने विनम्रतापूर्वक इसे स्वीकार किया ।
7. कर्ण का सच्चा धर्म:
द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद कर्ण ने कौरवों के सेनापति होने का दायित्व वहन किया । उसने अपनी मां कुन्ती को दिये हुए वचन का बखूबी पालन किया । मित्र दुर्योधन के प्रति भी मित्रधर्म का निर्वाह किया । इस प्रकार उसने मातृधर्म, भ्रातृधर्म, मित्रधर्म, पुत्रधर्म, गुराधर्म का पालन कर प्राण त्यागे ।
8. उपसंहार:
महाभारत की समस्त कथा व घटनाओं का अध्ययन करने पर निश्चित ही महारथी, महादानी, महावीर, महानधर्मी कर्ण का चरित्र सभी को आकर्षित करता है । जिस उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार, उपहास का सामना करते हुए भी उन्होंने अपने चारित्रिक आदर्श को बनाये रखा, वह भी प्रेरणा का स्त्रोत है ।
उच्च कुल में जन्मे कर्ण ने निम्न कुल में रहकर भी अपने जिन मानवोचित, वीरोचित गुणों और आदर्शो की रक्षा की, वह अनुपम तथा विलक्षण है ।