हरिशंकर परसाई । Biography of Harishankar Parsai in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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हरिशंकर परसाईजी देश के स्थापित एवं शीर्षस्थ व्यंग्यकार रहे हैं । हरिशंकर परसाईजी ने धर्म, समाज, राजनीति, संस्कृति पर घोर कटाक्ष भरे करारे व्यंग्य किये हैं । व्यंग्य की इस तीखी मार के बीच वे जीवन के विविध क्षेत्रों का कच्चा-चिट्ठा खोलते जाते हैं ।
राजनीतिक एवं प्रशासनिक विसंगतियों, भ्रष्टाचार, जीवन की विदूपताओं, नौकरशाही, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद तथा परिवार और समाज के बदलते मूल्यों पर व्यंग्य कर समाज की गन्दगी साफ करने की जो चेष्टा की है, उसमें आक्रोश है, उग्रता है ।
परसाईजी के लेखन का वृत इतना व्यापक है कि ऐसा लगता है समूचा देश उनकी लेखनी में आकर सिमट गया है । भाषा इतनी धारदार है कि सभी छिपे हुए चेहरों को बेनकाब करने मे सर्वथा सक्षम है ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म:
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महान् व्यप्यकार श्री हरिशंकर परसाईजी का जन्म मध्यप्रदेश के जमानी गांव में 22 अगस्त, 1924 को हुआ था । उनके पिता कोयले के व्यवसाय से जुड़े हुए थे । उनके दो भाई और तीन बहिनें थीं । माता-पिता की असामयिक मृत्यु के बाद परिवार का समूचा भार उन पर ही आ पड़ा था । नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम॰ए॰ करने के बाद वे जबलपुर चले आये ।
पारिवारिक जिम्मेदारी में ऐसे फंसे कि विवाह के लिए सोचने तक का समय नहीं मिला । जीवन में जो देखा, उसे ही लिखने का मन बना लिया । ”वसुधा” का सम्पादन घाटे के बाद भी करते रहे । ‘प्रहरी’ नामक अध्याय के माध्यम से उन्होंने नेता, व्यापारी और न जाने कितनों को अपनी लेखनी से घायल किया ।
उनकी रचनाए हैं: ”हंसते हैं रोते है”, ”भूत के पांव पीछे”, ”सदाचार का ताबीज”, ”शिकायत मुझे भी है”, ”बेईमानी की परत”, “पगडण्डियों का जमाना”, ”विकलांग श्रद्धा का दौर”, “इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर”, ”बोलती रेखाएं”, ”तिरछी रेखाएं”, वैष्णव की फिसलन”, ”चमचे की दिल्ली यात्रा”, ”पहला पापी”, ”भोलाराम काजीव”, “टार्च बेचने वाला” इत्यादि ।
अपनी पहली किताब ”हंसते हैं रोते है” खुद ही प्रकाशित करवायी और खुद ही बेच डाली । परसाईजी की ऐसी पैनी नजर होती थी कि आदमी के भीतर तक के रहस्यों को निकालकर उसके सामने ला देती थी । घूमना, लिखना, भाषण देना यही उनकी दिनचर्या थी ।
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मुक्तिबोध, श्रीकान्त वर्मा तथा प्रमोद वर्मा के साथ ”वसुधा” भी चलती रही । वैसे देखा जाये, तो प्रेमचन्द के बाद परसाईजी के साथ पाठकों का सबसे बड़ा वर्ग है । परसाईजी ने तीन लघु उपन्यास: “रानी नागफनी की कहानी”, ”तट की खोज”, ”ज्वाला और जल” लिखे हैं । परसाईजी की भाषा बेजोड़ है । व्यंग्यप्रधान है, जिसमें अवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग हुआ है ।
कुछ भाषिक शब्दावली उन्होंने स्वयं निर्मित की है, जो हास्य का आलम्बन है । मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग भाषा को नयी अर्थवत्ता प्रदान करता है । हरिशंकर परसाई की चुटीली भाषा का प्रयोग देखिये । जिसमें पारिवारिक जीवन के गिरते हुए मूल्य पर व्यंग्य है ।
कुछ बड़े आदमी हैं, जिनकी बड़ी हैसियत है; वे इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े पर रंग चढ़वा लेते हैं । काला बाजार में जेल गये । औरत खुलेआम बॉक्स में दूसरों के साथ सिनेमा देखती है । लोग उस्तरा लेकर नाक काटने घूम रहे हैं । मगर काटें कैसे ? नाक तो स्टील की है ।
इस तरह मुनाफाखोरी और महंगाई पर व्यंग्य कितना सटीक है, गेहूं महंगा है, तो मत खरीदिये । दाल महंगी है, तो मत खरीदिये । जब लोग खरीदेंगे ही नहीं, तो मुनाफाखोर किसे बेचेगा ? महंगाई की छुरी तो गरीबों का गला काटती है । अमीरों की गरदन साफ बच जाती है ।
भारतीय पुलिस का चरित्र कैसा है ? परसाईजी की भाषा में देखिये: “पुलिस उन अपराधियों को तलाश कर रही है जो ऊंचे पुलिस अधिकारियों के साथ बैठकर शराब पी रहे है जिनके सामने अपराधी को पेश करना था ।”
3. उपसंहार:
नि:सन्देह आधुनिक हिन्दी व्यंग्य के विकास में हरिशंकर परसाईजी का योगदान दृष्टि और शैली के आलोक में अद्वितीय है ।