गुरू तेगबहादुर । “Biography of Guru Tegh Bahadur” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. उनका जीवन परिचय ।
3. उनका चमत्कारिक जीवन ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
सिक्खों के नवें गुरु तेगबहादुर धर्मात्मा और सदाचारी व्यक्ति थे । उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब देश में मुगलों का शासन था । सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक दृष्टि से मुगलों को छोड़ अन्य किसी जाति या धर्म को उतने अधिकार व स्वतन्त्रता नहीं थी, जितनी कि मुगलों को थी ।
औरंगजेब तो अत्यन्त निर्दयी, कट्टर तथा संकीर्णतावादी मुसलमान था । सभी धर्मो को मिटाकर वह मुसलमान बनाने पर तुला हुआ था । कई हिन्दुओं को तो उसने बलपूर्वक मुसलमान बना डाला था । ऐसे ही अत्याचारों से त्रस्त होकर कश्मीरी हिन्दू गुरु तेगबहादुर के पास आये थे, जिनकी रक्षा हेतु गुरु तेगबहादुर ने अपना जीवन दान तक दे डाला ।
2. उनका जीवन परिचय:
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गुरु तेगबहादुरजी का जन्म अमृतसर में 1679 को वैसाख कृष्ण पंचमी को हुआ था । उनके पिता हरगोविन्द तथा माता का नाम नानकी देवी था । अपने पिता की मृत्यु के बाद वे माता तथा पत्नी गुजरी सहित बाकला नामक गांव में रहने लगे । पांच वर्ष की अवस्था से ही वे एकान्त में विचारमग्न रहा करते थे ।
उनकी ऐसी दशा देखकर उनके पिता ने उनके बारे में यह बता दिया था कि वह कोई महान धर्मात्मा बनेगा । अपने बड़े भाइयों के परिवार द्वारा रचे गये षड़यन्त्रों से परेशान होकर वे संसार से विरत होकर सिक्स धर्म का प्रचार करने के लिए निकल पड़े । पंजाब के कई स्थानों का भ्रमण करते हुए वे प्रयाग, काशी, गया भी गये ।
जयपुर महाराजा के पुत्र रामसिंह के प्रस्ताव पर वे कामरूप आसाम गये । वहां पर उन्होंने कामरूप के राजा तथा रामसिंह के मध्य बिना किसी रक्तपात के बंटवारा करवा दिया । वहां से वे पटना आये । पटना में माता और पत्नी को छोड़ पंजाब चल पड़े थे । इसी बीच उनकी पत्नी गुजरी ने सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । पंजाब आनन्दपुर में उन्होंने कुछ दिनों बाद माता, पत्नी तथा पुत्र गोविन्दराय को बुला लिया ।
3. उनका चमत्कारिक जीवन:
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गुरु तेगबहादुर ने कश्मीरी पण्डितों को औरंगजेब के द्वारा बलपूर्वक मुसलमान बनाने की पीड़ा सुनी और जब कश्मीरी पण्डित उनकी शरण में आये, तो उनके पांच वर्षीय पुत्र गोविन्दराय ने भी अपना बलिदान देकर कश्मीरी पण्डितों की रक्षा करने की बात अपने पिता से कही ।
इस पर गुरु तेगबहादुर सिंह ने औरंगजेब को यह चुनौतीपूर्ण सन्देश दिया कि सर्वप्रथम वे उन्हें मुसलमान बनाने के लिए तैयार करें और उसके बाद पण्डितों को । औरंगजेब यह सुनकर गदगद हो गया । उसने सोचा उनके सारे अनुयायी भी मुसलमान बन जायेंगे । औरंगजेब ने उन्हें दिल्ली बुलवा लिया ।
धर्मोपदेश देते हुए वे दिल्ली जाने लगे, तो उनके शिष्यों ने कहा: ”औरंगजेब बड़ा ही जालिम बादशाह है । वह हिन्दुओं तथा सिक्सों से बराबर की शत्रुता रखता है ।” गुरु तेगबहादुर ने कहा: ”सच्चा सन्त किसी के भय से अपने जीवन का धर्म नहीं छोड़ता ।”
गुरु तेगबहादुर निर्भीकता के साथ औरंगजेब के समक्ष जा खड़े हुए । औरंगजेब ने कहा: ”यदि तू सच्चा फकीर है, तो अपनी करामात और कमाल दिखा ।” तेगबहादुर ने कहा: ”कमाल तो बाजीगर दिखाया करते हैं । इस्लाम ने भी सदाचार, प्रेम और दया का पाठ पढ़ाया है । यदि इस्लाम ‘ही सच्चा है, तो खुदा भी इस दुनिया में और किसी धर्म को पैदा नहीं होने देता । बलपूर्वक धर्मपरिवर्तन करवाना अधर्मियों का काम है ।”
औरंगजेब क्रोधित हो उठा । बादशाह के हठ के आगे गुरु तेगबहादुर ने कहा: ”मेरी करामात यही है कि मेरी गर्दन में बंधा हुआ मन्त्र लिखा जो परचा है, उस पर तुम्हारी तलवार का वार भी कुछ न कर सकेगा । चाहो तो परीक्षा करके देख लो ।” औरंगजेब ने जल्लाद से तलवार चलाने को कहा ।
तलवार के चलाते ही गुरु की गर्दन कटकर गिर गयी । सारे दरबार में चुप्पी सी छा गयी । उनकी गर्दन से खोलकर परचा पढ़ा गया, तो उस पर लिखा था: “सर दिया है, सार नहीं ।” आगे चलकर यह बलिदान औरंगजेब के तख्त को हिला गया । 1732 की माघ कृष्ण पंचमी के दिन यह महाबलिदान दिया गया था ।
4. उपसंहार:
गुरु तेगबहादुर सच्चे अर्थो में मानवतावादी धर्म के समर्थक थे । हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों का जो बलिदान दिया, उसके कारण हिन्दू धर्म में भी उनके त्याग और बलिदान को हमेशा याद किया जाता रहेगा । उन्होंने सच ही कहा था: “सभी प्राणियों को अपने-अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता है । किसी भी व्यक्ति पर अपने धर्म को जबरन थोपना अधर्म का काम होगा ।”