गुरू गोविन्दसिंह । “Biography of Guru Gobind Singh” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. उनका जीवन परिचय ।
3. उनका चमत्कारिक जीवन ।
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4. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
गुरु तेगबहादुर के पुत्र गोविन्दराय भी उन्हीं के तरह धर्मात्मा और संत पुरुष थे । उन्होंने भी धर्म के रक्षार्थ अपने तथा अपने पुत्रों का बलिदान दिया । औरंगजेब जैसे क्रूर, अन्यायी, कट्टर, सनकी बादशाह ने उन जैसे सन्त को कठोर यातनाएं देकर धर्म पथ से विचलित करना चाहा ।
वाह रे सत्पुरुष ! जिन्होंने समझौता नहीं किया । वे खालसा पंथ के प्रवर्तक के रूप में भी सिक्स धर्म में आदर से पूजे जाते हैं । वे सिक्खों के दसवें गुरु कहलाते हैं ।
2. उनका जीवन परिचय:
उनका जन्म 22 दिसम्बर सन 1666 में पटना बिहार में हुआ था । उनके पिता गुरु तेगबहादुर की जब शहादत हुई थी, तब वे दस वर्ष के थे । उन्होंने ही अपने पिता को कश्मीरी पण्डितों के लिए बलिदान हेतु प्रेरित किया था । पिता की मृत्यु के बाद उन्हें सिक्स धर्म की गद्दी मिली ।
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अपने धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने सिक्स धर्म को नये सिरे से संगठित करने का कार्य प्रारम्भ किया । वे स्वयं घुड़सवारी करते थे । तलवार भी चलाया करते थे । अत्यन्त वीर व साहसी थे । उन्होंने तो सिक्सों का एक सैनिक संगठन भी बना डाला ।
गुरु गोविन्दसिंह के अनुयायी तो अपने प्राणों का बलिदान देने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे । उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों का भी गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था । चण्डी चरित्र, चण्डी का वार आदि वीर रस से पूर्ण ग्रंथ रचे । हिन्दू पुराणों की कथाओं को भी ओजपूर्ण भाषा में लिखा और सिक्स धर्म की वाणी को भी जोशमय अभिव्यक्ति दी ।
निराशा से भरे हुए लोगों को आशा का सन्देश देने वाले उस गुरु ने विचित्र नाटक नामक पुरतक भी लिखी, जिसमें उन्होंने यह लिखा कि: ”मैंने धर्मप्रचार हेतु संसार में जन्म लिया है ।” उन्होंने धर्म प्रचार करते हुए जो शक्तिशाली पंथ चलाया, उसका नाम ”खालसा पंथ” था, जिसका अर्थ होता है: शुद्ध ।
इस पंथ के अनुयायियों को केश, कड़ा, कंधा, कच्छा व कृपाण- इन पांचों को ग्रहण करना अत्यावश्यक माना गया है । इन्हें ”ककार” भी कहा जाता है । इस पंथ के अनुयायी बहुत साहसी और बलिदानी रहते हैं । उनके पथ का सैनिक संगठन देखकर औरंगजेब घबरा गया । उसने गुरु गोविन्दसिंह पर आक्रमण की आज्ञा दी ।
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कहा जाता है कि छह-सात साल तक तो उनके अनुयायी औरंगजेब का मुकाबला करते रहे, किन्तु एक युद्ध में गुरु गोविन्दसिंह के दोनों पुत्र मारे गये तथा दो पुत्रों को सूबेदार ने दीवार में चुनवा दिया । इसके बाद भी उनका साहस नहीं टूटा । उन्होंने औरंगजेब से कहा: ”बच्चो को मारने से तुम्हें क्या मिला । मैं तो धर्म का प्रचार करता रहूंगा । तुम्हारी मौत कोई अच्छी मौत नहीं होगी ।”
3. उनका चमत्कारिक जीवन:
गुरु तेगबहादुर को जब यह समाचार मिला था कि उनके दोनों पुत्र किले की दीवार में जिन्दा चुनवा दिये गये, उस आघात से उनकी पत्नी और माताजी ने प्राण त्याग दिये, तो वे अपने रोते हुए साथियों को धैर्यपूर्वक समझाने लगे कि “मनुष्य को दोनों ही स्थितियों में समान भाव रखना चाहिए ।” इस बात को समझाने के लिए उन्होंने एक अनुयायी को जमीन पर एक लकीर खींचने को कहा । उसने खींच दी ।
मिटाने को कहा, उसने मिटा दी । गुरु गोविन्दसिंह ने उससे पूछा: क्या तुम्हें लकीर खींचने और मिटाने पर सुख-दु:ख की अनुभूति हुई ? उसने कहा: नहीं । इस तरह मृत्यु भी शोक का विषय नहीं । तब से ”सत श्री अकाल” का नारा गूंज उठा । इन दोनों कुमारों का बलिदान होने के बाद भी औरंगजेब ने गुरु गोविन्दसिंह को युद्ध हेतु फौज के साथ ललकारा था ।
गुरु जाने के लिए जैसे ही तत्पर हुए, उनके दो पुत्रों: अजीतसिंह ओर जुझारसिंह: ने युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी । उनके अनुयायियों ने कहा: “गुरु ! देव कुल का तो एक भी दीपक नहीं बचेगा ।” गुरु ने कहा: ”कुल का प्रकाश पुत्रों से नहीं, उसके सत्कर्मों से होता है ।” गुरु गोविन्दसिंह अन्धविश्वास के प्रबल विरोधी थे ।
हिन्दू धर्म के अन्धविश्वासों को दूर करने का उन्होंने सदैव प्रयास किया । इसी उदाहरण के रूप में एक घटना इस प्रकार है: एक पाखण्डी, अन्धविश्वासी पण्डित ने उन्हें सिक्खों की संगठन शक्ति बढ़ाने हेतु यइा कराने को कहा, जिससे देवी प्रकट होकर आशीर्वाद देंगी ।
गुरु ने यज्ञ करवाया, किन्तु देवी प्रकट न हुईं, तो पाखण्डी पण्डित ने उन्हें बलि देने के लिए एक व्यक्ति को तैयार करने हेतु कहा । गुरु ने उससे कहा: “तुम्हारे उए।एसे पवित्र आदमी की बलि पाकर तो देवी अवश्य ही प्रसन्न होंगी । तुम अपनी बलि दे दो ।” पण्डित गिड़गिड़ाने लगा । गुरु ने इस प्रकार की बलि हेतु प्रेरित करने से दूर रहने को कहा ।
देवी अच्छे कामों से प्रसन्न होती हें न कि वलि देने जैसे घृणित कर्म से, यह उनका सन्देश था । धर्म रही प्रचार करते-करते एक बार उनकी मुलाकात नासिक के पास पंचवटी मैं तपस्यारत एक युवक से हुई । अपनी अन्तर्दृष्टि से उन्होंने जान लिया कि वह तपस्वी युवक मन की अशान्ति से पीड़ित है ।
पश्चाताप की अग्नि में जल रहा है । उस युवक ने उन्हें बताया कि उसके हाथों शिकार के समय दो मृग शावकों की मौत हो गयी तथा शावकों के वियोग में हिरणी ने भी प्राण त्याग दिये । गुरु देव ने उसे मानकता हेतु जीवन अर्पित करने को कहा । इसी दौरान धर्मयुद्ध में सिक्ख अपनी बलि दे रहे थे ।
गुरुदेव का चेला बना तपस्वी युवक आत्मप्रेरित होकर उस युद्ध में कूद पड़ा और उसके साथ हिन्दुओं का दल भी हौ लिया । सिक्स और हिन्दू दोनों मिलकर औरंगजेब के साथ लड़े । अत्याचारी बादशाह ने पैदा का मास नोच-नोचकर मार डालने का आदेश दिया ।
बंदा जंजीरों से बाधकर खड़ा कर दिया गया और जल्लादों ने गरम चिमटियों से उसका मांस निकालना शुरू किया, किन्तु धर्मवीर सच्चा तपस्वी युवक जो शारादत कैं बाद (वैरागी) अमर हो गया । इस प्रकार एक हिन्दू अनुयायी भी उनका सच्चा शिष्य था ।
4. उपसंहार:
गुरु गोविन्दसिंह ने जिन पाच पुरुषों को बलि की परीक्षा हेतु तैयार किया था, वे उसमें सफल रहे, जो बाद में “पंचप्यारे” कहलाये । उन्होने प्रत्येक सिक्स को अपने नाम के साथ “सिंह” जोड़ने को कहा, ताकि सिंह कें समान शक्ति का अहसास हो ।
जाति-पांति से परे एक ऐसे समानतावादी धर्म की उन्होंने कल्पना को थी, जो सच्चा मानव धर्म कहलाये । गुरु गोविन्दसिंह ने कहा था: “मेरे बाद कोई गुरु नहीं होगा; क्योंकि ईश्वर ही सच्चा गुरु है ।” ऐसे धर्मगुरु ने अक्टूबर सन् 1708 में 41 वर्ष की आयु में शरीर त्याग कर दिया ।