गुरू अर्जुन देव । “Biography of Guru Arjan Dev” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जन्म परिचय व उनके कार्य ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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भारतीय धर्मो में सिक्ख धर्म का अपना योगदान रहा है । इस धर्म में ऐसे कई सम्प्रदाय और धर्म गुरु हुए हैं, जिनमें किसी सम्प्रदाय में गृहस्थ जीवन वर्जित था, तो किसी सम्प्रदाय में गृहस्थ जीवन कोई बाधक नहीं था । गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए जिन लोगों ने अपने आदर्शो और विचारों से अध्यत्मिक उन्नति की उनमें गुरु अर्जुन देव का नाम सर्वोपरि है । वे सिक्खों के पांचवे गुरु थे ।
2. जन्म परिचय व उनके कार्य:
उनका जन्म 1620 बैसाख कृष्ण सप्तमी को गोइन्दवाल में हुआ था । उनके पिता गुरु रामदास तशा माता बीबी भानी धार्मिक संस्कार सम्पन्न थे । अर्जुन देव अपने माता-पित के परमभक्त थे और धार्मिक विचारों वाले व्यक्ति थे । उनके दो विवाह हुए ।
पहला विवाह मोड़गांव के चन्दनदास खत्री की कन्या रामदेवीजी से हुआ । दूसरा कृपाचन्द की पुत्री गंगादेवी से हुआ था । पहली से उनकी कोई सलाने नहीं थी । दूसरी पत्नी गंगादेवी से वर्षा बाद जो पुत्र पैदा हुआ, उसका नाम हरगोविन्द था, जो सिक्सों के छठे गुरु हुए । गुरा अर्जन देव ने अमृतसर में मन्दिर बनवाया, जिसे हरमन्दर साहब या दरबार भी कहते है ।
इस मन्दिर में गुरुग्रंन्थसाहब की पूजा की जाती है । उन्होंने तरण-तारण का निर्माण कर वहां एक तालाब खुदवाया । व्यास और सतलज नदियों के बीच जो शहर बसाया, उसे करतापुर कहते हैं । उनके कई धार्मिक तथा व्यक्तिगत शत्रु थे, जिन्होंने उनके विरुद्ध अनेक षड्यंत्र रचे ।
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बादशाह अकबर का मन्त्री बीरबल, अर्थमन्त्री चंदूशाह, उनका भाई प्रिथिया, जिन्होंने उनके पुत्र हरगोविन्दजी को जहर देकर मारने का षड्यन्त्र भी किया । अपने संघर्षमय जीवन में उन्होंने शान्ति, गम्भीरता, क्षमाशीलता का परिचय दिया । धर्मपथ से विचलित हुए बिना उन्होंने कई अन्यों की रचना की ।
गुरुग्रन्थसाहब का संकलन तथा सम्पादन किया । चारों पूर्व गुरुओं की यथार्थ वानी का संग्रह किया । कबीर, रैदास, फरीद, जयदेव आदि की रचनाओं को भी पदों, श्लोकों तथा गुरुमुखी में लिखवाया । 43 वर्ष की आयु में गुरु अर्जुन देव को धर्म की वेदी पर बलिदान होना पड़ा ।
प्रिथिया के पुत्र चंदू और मिहिरबान ने बादशाह अकबर से झूठी शिकायतें कर-कर उनके कान भरे कि गुरुग्रन्थसाहब में मुस्लिम पैगम्बर के बारे में निन्दा लिखी है । बादशाह ने उनसे गुरुग्रन्थसाहब को नष्ट करने तथा दो लाख बतौर जुर्माना देने को कहा । उन्होंने अस्वीकार करते हुए यह कहा कि: ”न तो मैंने हिन्दुओं के बारे में ही कुछ गलत लिखा है और न मुस्लिम पैगम्बरों के बारे में ही ।”
बादशाह ने उन्हें जेलखाने में डालकर अमानुषिक यातनाएं दीं । उन पर गरम-गरम रेत डाली गयी । जलती हुई लाल कड़ाही में बिठाया गया । माया उघैर भ्रम का परदा उनके जीवन से हट चुका था । उनके भीतर तो सदगुरू का प्रकाश रोम-रोम में आलोकित हो रहा था ।
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पांच दिन कारागार में बिताने के बाद छठवें दिन उन्होंने रावी नदी में रनान करने की इच्छा जतायी । अपने पंचप्यारों और हथियारबन्द सिपाहियों के साथ वे स्नान करने बंदीगृह से निकले, तो उनका शरीर पूरी तरह फफोलों से भरा हुआ था ।
शरीर पर जगह-जगह घाव बन आये थे, पर उनके चेहरे पर सदगुरू की ज्योति थी, जिनके ध्यान में वे वाहेगुरु ! वाहेगुरु ! जपते हुए मंगलपाठ कर रहे थे और 1663 की ज्येष्ठ सुदी चौथ के दिन उन्होंने अपने शरीर की केंचुली छोड़ दी । दुष्ट चंदूशाह की दयावान, धार्मिक पुत्रवधू इस समाचार को पाकर मूर्च्छित हो गयी और उसने भी अपनी देह भी त्याग दी ।
3. उपसंहार:
सिक्खों के इस पांचवे गुरु को गुरु-साहब की रचना तथा पंजाब के स्वर्ण मन्दिर के निर्माता के रूप में बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ याद किया जाता रहेगा । धन्य हैं वे महापुरुष, जिन्होंने अपने आदर्शो के लिए मरना स्वीकार किया, पर सिद्धान्तों से समझौता करना नहीं स्वीकारा ।