चैतन्य महाप्रभु । “Biography of Chaitanya” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. उनका जीवन एवं कार्य ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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चैतन्य महाप्रभु भगवान् कृष्णाजी के परमभक्त थे । जीवन-भर उनकी साधना और आराधना करते हुए वे उन्हीं में समाहित हो गये । बंगाल की भूमि में रामकृष्ण परमहंस जैसे साधक एवं योगी हुए, वहीं चैतन्य महाप्रभु भी हुए हैं, जिन्होंने मुगलकालीन समय में हिन्दू धर्म के प्रति लोगों की भक्ति और आस्था को मजबूती के साथ बनाये रखा ।
2. उनका जीवन एवं कार्य:
चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1407 में फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को सिंह लग्न में चन्द्रग्रहण के दिन पश्चिम बंगाल के नवद्वीप नामक ग्राम में हुआ था । उनके पिता जगन्नाथ मिश्र और माता शची देवी थीं, जो कृष्ण के अनन्य भक्त थे । कुदृष्टि से बचने के लिए उनके माता-पिता ने उनका नाम निमाई रख दिया था ।
बचपन में जब वे जोर-जोर से रोते, तो यदि कोई हरि का गुण गाता, तो वे रोना बन्द कर देते और उनके चेहरे पर एक तेज आ जाता । एक बार उनके पिता ने अतिथि आगमन पर भोजन बनवाया था । भगवान् को नैवेद्य देने से पहले ही उन्होंने एक कौर उठाकर चख लिया । जगन्नाथ मिश्र ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया ।
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दूसरी बार पुन: उन्होंने ग्रास खा लिया । तीसरी बार क्रोधित होने पर उन्हें निमाई में गोपाल के दर्शन हुए । पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए भेजा । वे पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते थे । इसी बीच पिता जगनाथ मिश्र का देहावसान हो गया । माता शची ने आर्थिक संकट का सामना करते हुए उनका पालन-पोषण किया ।
कहा जाता है कि एक बार माता शची गंगा स्नान के लिए जा रही थीं, तो उन्होंने माताजी से चन्दन माला की मांग कर ली । माता ने विरोध किया, तो घर के सारे बर्तन फोड़ डाले । माला पाकर ही वे शान्त हुए । जब माताजी गंगा स्नान कर लौटी तो निमाई ने उन्हें स्वर्ण लाकर दिया ।
चैतन्य इस बीच नवद्वीप के न्यायशास्त्री के घर पर अध्ययन हेतु जाया करते थे । उन्होंने न्यायशास्त्र पर एक ग्रन्थ लिखा । उनके गुरु न्यायशास्त्री रघुनाथ ने उस यद्यथ की आलोचना की, तो निमाई ने उसे गंगा में जाकर फेंक दिया और पढ़ाई भी छोड़ दी । निमाई को शास्त्रों का असाधारण ज्ञान प्राप्त था ।
वे 16 वर्ष की अवस्था में थे, उसी समय केशवभारती नाम के कश्मीरी पण्डित वहा आये हुए थे । उन्होंने नवद्वीप के सभी पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था, किन्तु निमाई ने उसी पण्डित के एक श्लोक में आलंकारिक दोष ढूंढा, तो उनका सारा का सारा अहंकार जाता रहा ।
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उनका विवाह विष्णुप्रिया नाम की एक सुन्दर कन्या से हुआ था । 6 वर्ष तक वैवाहिक बन्धन में रहने के बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था । पिता के श्राद्ध हेतु जब वे गया गये, तो वहां विष्णुजी के पदचिह्न का दर्शन कर उनका शरीर इतना रोमांचित हो गया कि वे उसे देखकर चेतनाशून्य से हो गये ।
वहीं पुरी में अपना जीवन बिताने की सोचकर वे विष्णुजी के ध्यान में उन्मत ऐसे हुए कि नाम जाप करते चिल्लाने लगे-मेरे प्राणों के चोर मेरे कृष्ण! कहां हो आप ? नवद्वीप जाने के बदले वे मथुरा चले गये और वहां पर शिष्यों के साथ रहकर एक संकीर्तन मण्डली बनायी ।
उनकी वाणी इतनी मधुर और प्रभावशाली थी कि उनके कीर्तन और भजनों को सुनकर लोग मन्त्रमुग्ध होकर उनके पीछे-पीछे चलने लगते थे । मृदंग-मंजीरा, ढोल आदि के साथ स्वर ताल लय के साथ हरि नाम जपती जब उनकी मण्डली सड़क से निकल पड़ती, तो लोग भी भक्ति सागर में गोते लगाने लगते ।
एक बार वहां के काजी ने हरिकीर्तन पर रोक लगाने का प्रयास किया, किन्तु काजी को यह निर्णय वापस लेना पड़ा । हरिनाम का प्रचार-प्रसार करते वे जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, मैसूर, कर्नाटक, द्वारिकापुरी, पंढरपुर, फिर जगन्नाथपुरी आ गये ।
इस तरह आम लोगों में धार्मिक चेतना जागत कर सन् 1590 में 48 वर्ष की आयु में हरिकथा सुनते-सुनते वे जगन्नाथजी की मूर्ति के पास पहुंचे गये और उसी में समा गये । कहा जाता है कि उन्होंने एक दिन आम की गुठली बोयी थी ।
एक ही दिन में देखते ही देखते उसमें आम भी लग आये थे । सभी ने आम खाये, लेकिन आमों की संख्या जस की तस रही । चैतन्य महाप्रभु कृष्ण की आराधना में इस तरह रम जाते थे कि वे नाचते-गाते हुए अपनी सुध-बुध खो बैठते थे । एक बार ऐसे ही नाचते-गाते वे 18 नाले पार कर आये । तब से वे चैतन्य कहलाये ।
3. उपसंहार:
चैतन्य महाप्रभु का वैष्णव सम्प्रदाय के कृष्ण भक्तों में सर्वप्रमुख स्थान है । मथुरा और वृन्दावन में रहकर उन्होंने कृष्ण की लीलाभूमि में भक्ति का आनन्द प्राप्त किया तथा समस्त भारत में फैलाया और उस समय धार्मिक जागरण का कार्य करके पीड़ित जनता को शान्ति का सन्देश दिया । उनकी भक्ति स्वांत:सुखाय अधिक थी ।