बिल्वमंगल । “Biography of Bilwa Mangal” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. उनका परिवर्तित जीवन ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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बिल्वमंगल अपने प्रारम्भिक जीवन में महान् दुराचारी व्यक्ति के रूप में जाने जाते थे, किन्तु ईश्वर-भक्ति से वह महान् सदाचारी व्यक्ति कैसे बने, उनका जीवन इसी का एक उदाहरण है । “श्रीकृष्णकर्णामृत” नाम के महान् ग्रन्थ की रचना उन्होंने अपनी मधुर लीलामयी छवि के माध्यम से की । उनका एक नाम लीलाशुक भी है ।
2. उनका परिवर्तित जीवन:
दक्षिण की कृष्णवेणी नदी के तट पर एक ग्राम में रामदास नाम का भक्त ब्राह्मण निवास करता था । वह ब्राह्मण बड़ा ही सन्त और साधु स्वभाव का था । उसी का एक पुत्र बिल्वमंगल था । पिता की मृत्यु के बाद कुसंगति में पड़कर वह इतना कुसंस्कारी हो गया कि चिन्तामणि नाम की वेश्या के यहां दिन-रात पड़ा हुआ पापकर्म करता था ।
वेश्या नदी के उस पार रहती थी । जिस दिन पिता का श्राद्ध था, उस दिन वह वेश्या के यहां प्रात: जा नहीं सका । रात्रि के समय जब वह नदी पार कर वेश्या के यहां जाने के लिए उद्यत हुआ, तो लोगों ने उसे मना किया । वह किसी की परवा किये बिना नदी तट पर जा पहुंचा । अचानक तूफान आ गया ।
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इसके साथ ही मूसलाधार वर्षा भी होने लगी । केवट ऐसे प्रतिकूल मौसम में जाने को तैयार नहीं थे । अत: उसने तरह-तरह का प्रलोभन दिया । हारकर वह स्वयं ही तैरकर जाने लगा । उसने जिसे लकड़ी समझा था, वह एक स्त्री की सड़ी हुई लाश थी, जिसके सहारे वह चिन्तामणि के घर जा पहुंचा ।
चिन्तामणि का घर बन्द था, सो वह रस्से के सहारे ऊपर चढ़ गया । जिसे रस्सा समझा था, वह तो एक काला नाग था । चिन्तामणि को जब बिल्वमंगल ने कथा सुनायी, तो उसने उसे धिक्कारते हुए कहा: ”रे नीच ब्राह्मण ! तू मुझ पर आसक्त होकर ऐसे कर्म कर रहा है । इतनी ही अनुरक्ति यदि तू भगवान् के साथ रखता, तो तेरा जीवन धन्य हो जाता ।”
इसे सुनकर बिल्वमंगल उलटे पांव घर लौट आया और भगवान् कृष्ण के पवित्र चिन्तन में निमग्न रहने का प्रयास करने लगा । कृष्णवेणी नदी के तट पर सोमगिरी नाम के महात्मा रहा करते थे, जिनसे दीक्षा लेकर वह साधना करने लगा ।
एक दिन बिल्वमंगल ने एक घर के दरवाजे पर एक सुन्दरी युवती को देखा, तो उसका मन पुन: मचल उठा । वह उस दरवाजे पर जाकर बैठ गया । एक मलिन ब्राह्मण ने उसके इस तरह बैठने का कारण पूछा । इस पर बिल्वमंगल ने युवती को देखने की इच्छा की ।
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ब्राह्मण ने बताया: “वह एक सेठ की पत्नी है ।” सेठ तथा उसकी धर्मपत्नी ने सोचा इसमें हानि ही क्या है ? उन्होंने बिल्वमंगल को घर के अन्दर बुला लिया । बिल्वमंगल के मन में पुन: वही लालसा जागृत हो गयी । अब बिल्वमंगल, जो कि ईश्वर का भक्त तो था, अत: भगवान् द्वारा दिये गये विवेकचक्षु ने उसे यह सोचने को बाध्य कर दिया कि वह नीच कर्म कर रहा है ।
ऐसा सोचते ही उसका हृदय शोक से भर गया । उसने तत्काल ही बेल के पेड़ से दो कांटे तोड़े और यह कहते हुए उन कांटों से अपनी आंखें फोड़ ली कि: “यदि ये अभागी आंखें न होतीं, तो ऐसा न होता ।” उसकी आंखों से रूधिर की धारा बह निकली । सेठ तथा उसकी पत्नी बड़े दुखी हुए । इस घटना से बिल्वमंगल के चित्त का जो रहा-सहा मैल था, वह भी साफ हो चुका था ।
अब उसका अन्त: करण निर्मल, पवित्र विचारों से भर उठा था । प्रिय कृष्ण का ध्यान करते हुए उसकी आंखों से चौबीस घण्टे अश्रुधारा बहती रहती थी । भूखे-प्यासे इधर-उधर घूमते हुए बिल्वमंगल इसका प्रायश्चित कर रहा था ।
भक्त के इस पश्चाताप को देखकर भगवान् कृष्ण ने गोप बालक के वेश में आकर उससे कहा: ”आप भूख और प्यास से व्याकुल हो रहे हो । कुछ मिठाई और जल लाया हूं आप इसे ग्रहण कीजिये ।” बिल्वमंगल ऐसा दुर्लभ प्रसाद पाकर धन्य हो गया था ।
इस तरह वह बालक उसे प्रतिदिन अपने घर से लाकर कुछ-न-कुछ खिलाता था । वह सोचने लगा स्त्री के मोह से छूटा, तो बालक के मोह में आ फंसा । बालक से अपने मन की व्यथा कहते हुए बिल्वमंगल ने वृन्दावन जाने की इच्छा प्रकट की । उस अन्धे को भला कौन ले जायेगा ? यह कहकर वह रोने लगा । बालक ने कहा: ”मेरी लाठी पकड़ो और मेरे साथ चलते चलो ।”
बालक का स्पर्श पाते ही उसे एक अलौकिक अनुभूति हुई, जिसके द्वारा वह पहचान गया कि यह कोई साधारण बालक नहीं है । साक्षात् श्रीकृष्णजी हैं । उसने जोर से हाथ पकड़ते हुए कहा: ”भगवन । आप मुझे मत छोड़ना ।” भगवान् ने हाथ छुड़ाया और उसे दिव्यदृष्टि प्रदान कर कहा: “अब तुम पूर्णत: दुराचारी से सदाचारी बन गये हो ।”
3. उपसंहार:
इस प्रकार एक दुरात्मा भगवान् की सच्ची भक्ति से महात्मा के रूप में जाने जाना लगा । बिल्वमंगल का चरित्र मानव को यह प्रेरणा देता है कि हमारी आत्मा में दुर्गुण तथा सदगुण दोनों ही विद्यमान रहते हैं । व्यक्ति चाहे, तो इनमें से सदगुण को अपनाकर महानता को प्राप्त कर सकता है ।