भक्त पीपा । “Biography of Bhagat Pipa” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन परिचय व उनके कार्य ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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इस संसार में ऐसे राजा-महाराजा तो बहुत हुए हैं, जिन्होंने ऐश्वर्य तथा शानो-शौकत से अपना जीवन व्यतीत किया, किन्तु कुछ ऐसे भी राजा हुए हैं, जिन्होंने अपने आदर्शो के लिए त्याग व बलिदान का रास्ता भी चुना था, जिनमें थे: सत्यवादी हरिश्चन्द्र, राजा बाली और राजा पीपा, जो बाद में सन्त के रूप में विख्यात हुए ।
2. जीवन परिचय व उनके कार्य:
सन्त पीपा पहले गागरोनगढ के प्रतापी राजा साधु-सन्तों के आतिथ्य सत्कार का बहुत ध्यान रखते थे, किन्तु एक बार ऐसे घटना घटी कि वे साधु-सन्तों के भोजन का प्रबन्ध उनके आश्रयस्थल पर तो कर आये, किन्तु स्वयं नहीं जा पाये । ऐसे में राजा के प्रति उनके मन में यह भाव आया कि राजा सन्तों के प्रति सहय नहीं है ।
साधुओं ने भगवती के इस भक्त की सद्बुद्धि के लिए देवी भगवती से प्रार्थना की । रात्रि में ही ऐसा चमत्कार हुआ कि भगवती राजा के महल पहुंचीं और कृष्णभक्त साधुओं की अवहेलना हेतु राजा को धिक्कारा । स्वप्न में भक्त पीपा बैठे और भगवती के मन्दिर की ओर स्वप्रेरित होकर चले गये ।
प्रात:काल होते ही वे प्रायश्चित स्वरूप विश्वानाथ की नगरी काशी पहुंचे । गंगा स्नान करके वे गुरुदेव से उनकी कुटिया में जाकर मिलना चाहते थे । कुटिया पर स्थित पहरेदार ने गुरु रामानन्द के पास जाकर राजा के आने की खबर सुनायी । रामानन्द ने कह दिया कि हम राजाओं से नहीं मिलते ।
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इतना सुनना था कि राजा ने राजसी वस्त्रों का त्याग कर उनसे मिलने की पुन: इच्छा व्यक्त की । इस पर गुरु ने कहा: ”जाओ ! उनसे नहीं मिलते । उनसे कह दो कि कुएं में कूद जाओ ।” गुरु की आज्ञा मानकर पीपा कुएं की ओर जाने को उद्यत हुए, तो उनके शिष्यों ने उन्हें पकड़कर गुरु के पास ला खड़ा किया ।
यह तो गुरु द्वारा ली गयी एक परीक्षा थी । गुरु ने उन्हें कृष्ण मन्त्र की दीक्षा दी । राज्य में आकर साधु-सा जीवन व्यतीत करते हुए राजकाज चलाने लगे । उन्हें पता चला कि गुरुदेव उनके नगर आये हुए हैं, तो उन्होंने गुरुदेव की पालकी में कन्धा लगाकर नगर के भीतर प्रवेश करवाया ।
गुरु के दर्शन कर राजकाज के प्रति निर्मोही हो राजा गुरु के साथ द्वारिका जाने का आग्रह करने लगे । उनकी बारह रानियों में से केवल छोटी रानी सीतादेवी उनके साथ जाने के लिए जिद करने लगी । पीपाजी अब सीतादेवी के साथ द्वारिका में आ गये । वे कृष्ण और रुक्मिणी के दर्शनाभिलाषी थे ।
जब उन्हें ज्ञात हुआ कि कृष्ण तो द्वारिका नगरी सहित समुद्र में समाए हुए हैं, तो वे पत्नी सहित समुद्र में कूद पड़े । सात दिनों तक समुद्र में डूबे रहने के बाद भी उनके वस्त्र भीगे नहीं थे । उन्हें तो समुद्र के गर्भ में भगवान् कृष्ण और रुक्मिणी के दर्शन हो चुके थे ।
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जहां पर रहकर वे उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर उनकी आज्ञानुसार बाहर निकले थे । वहां से निकलकर उन्होंने द्वारिकापुरी में ही रणछोड़जी, चीकमजी नामक दो मूर्तियों की स्थापना की । कहा जाता है कि द्वारिकापुरी का कृष्ण मन्दिर भक्त पीपा द्वारा ही स्थापित है ।
जब वे द्वारिकापुरी से तीर्थयात्रा के लिए सीतादेवी के साथ बढ़ रहे थे, तब रास्ते में कुछ मुसलमान सैनिकों ने सीतादेवी को घेर लिया । कृष्णजी से प्रार्थना करते ही भगवान् कृष्ण के चमत्कार से दुष्ट भाग निकले । कहा जाता है कि अब उन पर हिंसक पशु सिंह ने आक्रमण कर दिया था ।
कृष्णाजी का नाम लेते ही सिंह उनके चरणों में लोटने लगा । तब से उस स्थान पर से यात्रा कर जाने वालों को सिंह का भय नहीं सताता । आगे एक गांव में पहुंचे जहां दुकानदार से उन्होंने एक लाठी मांगी । दुकानदार ने अपमानित करते हुए लाठी देने से इनकार कर दिया । यह जानते हुए पीपा ने भगवान् का ध्यान किया ।
तभी वहां बांसों का जंगल खड़ा हो गया । उनके इस चमत्कार से सभी ग्रामवासी नतमस्तक होकर उन्हें सन्त मानने लगे । वहां से निकलकर सीतादेवी और पीपाजी चिघड़ भक्त के यहां से होते हुए नगर पहुंचे । इस बीच पीपाजी को कुछ घड़े में सोने की मोहरें प्राप्त हुई, जिन्हें उन्होंने साधु सेवा तथा उनके भोजन हेतु खर्च कर दिया ।
उनका चोरी हुआ घोड़ा भी उनके सामने आ गया था । जिस कुटिया में वे ठहरे हुए थे, साधुओं के आ जाने पर उन्होंने अपनी पत्नी को दुकान भेजा, जहां बनिये की कुदृष्टि सीतादेवी पर पड़ी । सीतादेवी को बनिये ने भोजन सामग्री के बदले रात्रि में आने का निमन्त्रण दिया । सीतादेवी ने सारी वात पीपाजी को कह सुनायी ।
पीपाजी उन्हें बनिये को दिये हुए वचनानुसार दुकान ले गये । घनघोर वर्षा हो रही थी । पीपाजी की दृष्टि पड़ते ही बनिये की सारी मलिन भावनाएं जाती रहीं । वह सीतादेवी और पीपाजी के चरणों पर गिर पड़ा । उसने उन्हें माता कहकर सम्बोधित किया ।
इधर पीपाजी को गुरु मानने वाले उस नगरी के राजा को जब यह समाचार मिला कि किस प्रकार बनिये के कहने पर पीपाजी अपनी पत्नी सीतादेवी को उसके पास ले गये । यह सुनकर राजा के मन में पीपाजी के प्रति घृणा का भाव आया । पीपाजी अपनी अन्तर्दृष्टि से अपने शिष्य राजा के मन की बात ताड़ गये । वे स्वयं शिष्य के इस भ्रम को दूर करना चाहते थे ।
राजा पूजा में बैठे हुए थे । द्वारपाल ने जब यह खबर सुनायी, तो पीपाजी ने द्वारपाल से कहा: ”तुम्हारा राजा बड़ा अज्ञानी है, चमार के यहां जूता लेने गया है और नाम पूजा करने का लेता है ।” इसी बीच पीपाजी ने राजा के मतिभ्रम को दूर करने के लिए राजमहल में सिंहों की उपस्थिति तथा रानी की गोद में खेलते हुए शिशु को दिखलाकर ऐसे कई चमत्कार किये कि राजा के सारे भ्रम जाते रहे ।
पीपाजी के बारे में जानकर भी एक कपटी साधु उनकी पत्नी सीतादेवी को ले जाने की प्रार्थना करने लगा । पीपाजी उसकी दुर्भावना को जानते थे । फिर भी उन्होंने सीतादेवी को उस साधु के साथ भेज दिया । वह साधु सीतादेवी को बहुत दूर ले जाना चाहता था । इस हेतु वह घोड़ा लेने बाजार गया ।
देखता क्या है कि बाजार में उसे सीतादेवी चारों ओर सभी प्राणियों में नजर आ रही थीं । साधु तो पीपाजी के चरणों में आकर गिर पड़ा था । बाद में वह उनका परमभक्त बन गया । उनके चमत्कारों में यह भी प्रसिद्ध है कि एक बार एक तेल बेचने वाली को उन्होंने तेल लो ! तेल लो ! की जगह पर राम लो ! राम लो ! कहने को प्रेरित किया । तेलिन ने पलटकर जवाब दिया: ”मैं यह क्यों कहूं ? ऐसा तो लोग मरने के बाद कहते हैं ।”
जब वह घर पहुंची, तो उसका पति मरा पड़ा था । तेलिन दौड़ी-भागी पीपाजी के पास आयी और बोली: ”बाबा ! मुझसे ऐसा कौन-सा अपराध हो गया है?” पीपा बोले: ”बेटी ! मैं तुझे मरने के बाद नहीं, जीवित अवस्था में रामनाम लेकर जीवन की सार्थकता पाने की बात कह रहा था ।”
राम तो सुखकर्ता, दु:खहर्ता दोनों ही हैं । तू सच्चे हृदय से उनका नाम ले । तेरा कल्याण होगा । रामनाम जपते ही उसका पति जीवित हो गया । ऐसे कई चमत्कार भक्त पीपाजी के हैं ।
3. उपसंहार:
भक्त पीपा एक प्रसिद्ध वैष्णव सन्त थे । वे रामानन्दी सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे । कबीरपंथ के अनुयायी थे । उनके सारे भजन एवं वाणियां “सन्तवाणी संग्रह” में पदों के रूप में संग्रहित हैं । सच दुष्टों के साथ भी सद्व्यहार करते हैं और अपनी सिद्धि और साधना से दुष्टों का भी ऐसा हृदय परिवर्तन करते हैं कि वे भी उनके भक्तों की श्रेणी में आ खड़े होते हैं ।