कलम की आत्मकथा । “Autobiography of a Pen” in Hindi Language!
मैं एक कलम हूं । मुझे लेखनी भी कहा जाता है; क्योंकि मैं लिखने का काम करती हूं । सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक की वर्तमान सभ्यता तक ज्ञान-विज्ञान की जो जानकारियां मनुष्य तक पहुंची हैं, उसे पहुंचाने एवं प्राप्त करने का श्रेय मुझे ही तो जाता है ।
मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ मेरे रंग-रूप में आमूल-चूल परिवर्तन आया है । पहले मैं लकड़ी से बनी होती थी । मेरी नोंक को स्याही की दवात में डुबो-हुबद्धे लिखा जाता था । मुझे प्रयोग में लाने वाले लोग दवात के साथ अन्य सामान को लेकर चला करते थे ।
बाद में मेरे रूपों में कुछ ऐसा परिवर्तन आय कि मुझमें स्याही भरी जाने लगी, जो नीले, हरे, लाल सभी प्रकार के रंगों में प्रयुक्त होती थी । मेरे इस रूप को फ-टेन पेन कहा जाता है । मेरे अग्रभाग, अर्थात् निब से अक्षरों को विभिन्न आकार-प्रकारों में लिखा जाता है । निब के साथ-साथ मेरे आकार-क्कारों में काफी विविधताएं एवं विशेषताएं पाई जाती हैं ।
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जब तक सृष्टि है, तब तक मैं रहूंगी । मेरे रूपों में हमेशा परिवर्तन होता रहेगा । मैंने अब तक अनेक कहानियां, कविताएं, उपन्यास, नाटक तथा विभिन्न प्रकार का साहित्य लिखा है, जो संसार की हजारों भाषाओं एवं लिपियों में मिलता है ।
समस्त वनों की लकड़ियों को लेखनी का रूप दे दिया जाये या फिर समस्त धरती को कागज का रूप दिया जाये और समस्त नदी सागर एवं महासागरों को स्याही का रूप दे दिया जाये, तो ज्ञात होगा कि मैं सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक लिखती रही हूं ।
उसकी गणना कहीं उससे अधिक है । मुझे इस बात का हमेशा गर्व रहेगा की मानव ने अब तक जो भी लिखा है, वह मेरे ही अस्तित्व का प्रमण है । आदिकवि वाल्मीकि, कालिदास, चन्दर्न्स्प, तुलसीदास से लेकर प्रेमचन्द तक या फिर इससे उग भी मेरा ही उपयोग कर साहित्य रचा गया ।
मैं न होती, तो साहित्य नहीं होता । मानव की वाचिक अभिव्यक्ति को लिखित रूप मैंने ही प्रदान किया । ज्ञान-विज्ञान के संचित कोष से मेरे ही द्वारा संरक्षित किया गया । एक पीढ़ी से दूसरी पीढी के ज्ञान को हस्तान्तरित मेरे ही द्वारा किया गया ।
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मैंने अपने ज्ञान से मानवता और मनुष्य की ही नहीं, समस्त जीव-जन्तुओं की रक्षा की है । सृष्टि का समूचा अस्तित्व मेरे ही लेखन का ऋणी रहेगा । इस रूप में सबका कल्याण ही करना चाहूंगी । यही मेरे जीवन की सार्थकता है ।