भिक्षुक की आत्मकथा । “Autobiography of a Beggar” in Hindi Language!
न तो तन पर कपड़ा है, न पेट में रोटी है । रहने के लिए कोई मकान नहीं, दर-दर की ठोकरें खाता, अपने हाथों में कटोरा थामे दीन स्वर में याचना करता हुआ, लोगों की दुत्कार सहता, मजबूरी-भरा जीवन जीने को मजबूर मैं एक भिखारी हूं ।
जी हां, एक ऐसा भिखारी, दु:ख ही जिसके जीवन की व्यथा-कथा कह रही है । मैं वही भिखारी हूं जो हाथ फैलाये सड़कों पर भीख मांगता फिरता है । मैं वह भिखारी नहीं, जो अपनी अकर्मण्यता, कामचोरी की वजह से भीख मांगने को मजबूर रहता है ।
मुझे तो ऐसे भिखारियों के जीवन पर तरस आता है, जिनके हाथ-पैर सही-सलामत हैं, फिर भी वे भीख मांगते फिरते हैं । अपना आत्मसम्मान खोकर भीख मांगकर पेट भरना श्रेयस्कर समझते हैं । इस तरह भीख मांगकर जीने से अच्छा मरना भला !
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मेरे भिखारी जीवन की करुण कथा बड़ी ही करुणा-भरी है । मुझे याद है, जब मैं बहुत छोटा था, तब मेरे माता-पिता की एक छोटी-सी चाय की दुकान हुआ करती थी । मेरा एक छोटा भाई था । मेरी मां बहुत मेहनती थी ।
वह मेरे पिता के कामों में भी हाथ बंटाया करती थी । मेरे पिताजी जब चाय के साथ-साथ नाश्ता भी रखने लगे, तो हमारी आमदनी पहले से कुछ ज्यादा होने लगी थी । मैं थोड़ा बड़ा हुआ, तो मुझे स्कूल पढ़ने के लिए भेजा गया ।
कुछ महीने ही हुए थे कि हमारे शहर में दो धर्मो के बीच बड़ा दंगा हो गया । उस दंगे प्रभावित क्षेत्र में हमारी चाय-नाश्ते वाली दुकान भी आ गयी थी । लूटपाट व आगजनी में हमारी दुकान तो जलकर राख हो गयी ।
साथ ही मेरे अम्मा-बाबूजी और नन्हा भाई किसन भी उस भयंकर आग की चपेट में आ गये । उस समय लोगों पर वहशीपन का ऐसा भूत सवार था कि लोग मुझे भी दौड़ाने लगे थे । मैं किसी तरह बचता-बचाता सामने की सड़क की ओर भागा ।
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इस भागदौड़ में मैं सड़क पर गिर पड़ा था कि एक गाड़ी मेरे दोनों हाथों को कुचलती हुई चली गयी । दंगाई मुझे मरा समझकर चले गये । इसी बीच पुलिस आयी । मैं तो बेहोश था । पता नहीं मुझे कब कहा कैसे अस्पताल ले जाया गया । मेरे हाथों की पट्टियां दिनों बाद खुलीं, तो पाया कि मेरे दोनों हाथों के पंजे बेकार हो गये हैं ।
मैंने अपने उन दोनों पंजों से काम लेने की बहुत कोशिश की, किन्तु मेरी अंगुलियां तो पूरी तरह बेकार हो गयी थीं । उस असहनीय यातना को भुगतने के बाद मैंने अपने ठूंठे हाथों से काम लेते हुए खिलौने आदि बेचने का काम ले लिया, किन्तु आने वाले ग्राहक खिलौनों के बजाय मेरे हाथों को देखते और निकल जाते ।
उन्हें मेरे हाथों की विद्रुपता पर घृणा आती थी शायद! जो दयालु थे, वे कुछ बिक्री कर जाते थे । इस दुनिया में दयालु थे भी कितने मैं यह काम कर ही रहा था कि मेरे मालिक ने दूसरा धन्धा शुरू कर दिया और मुझे बड़ी ही बेरहमी से काम से निकाल दिया । अब तो मैं होटल में बर्तन भी नहीं धो सकता था ।
कुछ काम नहीं कर सकता था । फिर मैंने एक छोटे-से कारखाने में चौकीदारी की नौकरी की । मेरा मालिक बड़ा ही नरमदिल था । वह मुझे 500 रुपये माहवर देता था । मैं ईमानदारी से यह कार्य करने लगा । बमुश्किल तीन महीने हुए थे ।
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मेरा दूसरा चौकीदार साथी, जो नया-नया आया था, वह काम में कम दूसरों की बातों में कुछ ज्यादा ही ध्यान लगाता था । मालिक साहब की वह ऐसी जी हुजूरी करता कि पूछिये मत । एक दिन मालिक साहब बाहर गये थे । मेरे साथी चौकीदार की ड्यूटी थी ।
एक दिन उसने मुझे थोड़ी देर में आने का वायदा किया और मुझे छोड़कर बाहर चला गया । दुर्भाग्यवश उस दिन कारखाने से कुछ सामानों की चोरी हो गयी । जब मालिक आये, तो वे बहुत गुस्सा हुए । उन्होंने हम दोनों को ही काम से निकाल बाहर किया । मैं रोता-गिड़गिड़ाता रहा । न जाने उस समय मालिक इतने निर्दयी कैसे हो गये थे ? उनका दिल जरा भी नहीं पसीजा ।
मैंने कई जगह काम मांगने की कोशिश की, फिर मैं मन्दिरों के बाहर जूतों की रखवाली का काम करने लगा । यह काम मुझे एक बूढ़ी अम्मा ने दिलवाया था । पहले वह यही काम करती थी । अब वह बीमार थी । उसका इस दुनिया में कोई नहीं था । उसका इंतजाम कैसे हो ? सो मैंने बूढ़ी अम्मा के लिए अब हाथ फैलाने शुरू कर दिये । जो कुछ मिलता, दवा-दारू मेंलगा देता ।
यह सोचकर कि अम्मा ठीक हो जायेगी, तो मैं काम मांगना बन्द कर दूंगा । अम्मा की हालत अभी भी ठीक नहीं है । मैं भिक्षा मांगते हुए अब भिखारी हो चला हूं । मुझे इसका अफसोस नहीं, मैं तो भीख में मिले हुए पैसे अपने लिए नहीं खर्च करता ।
जूतों की रखवाली में जो कुछ मिल जाता है, उससे ही अपना जीविकोपार्जन कर लेता हूं । बूढ़ी अम्मा ठीक हो जाये, यही इच्छा है । यह संसार हम जैसे भिखारियों को कभी समझ नहीं पायेगा और फिर सभी भिखारी तो एक जैसे नहीं होते । उनमें से मैं एक भिखारी हूं लाचार भिखारी ।