Read this article in Hindi to learn about the conservation of biodiversity.
यथास्थल संरक्षण (In-Situ Conservation):
जैव-विविधता को उसके सभी स्तरों पर जननिक (Genetic) प्रजातियों के रूप में और अप्रभावित पारितंत्रों के रूप में, यथास्थल ही सबसे अच्छी तरह सुरक्षित रखा जा सकता है और इसके लिए निर्जन क्षेत्र का एक पर्याप्त भाग संरक्षित क्षेत्र के रूप में अलग कर देना ही सबसे अच्छा तरीका है । यह क्षेत्र राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों का तंत्र होना चाहिए और इस तंत्र में हर विशेष पारितंत्र शामिल होना चाहिए । ऐसा कोई तंत्र किसी क्षेत्र की पूरी जैव-विविधता को सुरक्षित रखेगा ।
अतीत में बाघ, शेर, हाथी और हिरन जैसे बड़े वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए ही भारत में राष्ट्रीय पार्क और अभयारण्य अधिसूचित किए जाते थे । फिर इन क्षेत्रों के उद्देश्य को बढ़ाकर उनमें ऐसे अपेक्षाकृत अप्रभावित प्राकृतिक पारितंत्र भी शामिल कर लिए गए जिनमें सूक्ष्म एककोशीय पौधों और प्राणियों से लेकर विराट वृक्षों और विशाल स्तनपाइयों तक सारी जैव-विविधता सुरक्षित रखी जा सके ।
लेकिन प्रजातियों का अलग-अलग संरक्षण असंभव है क्योंकि वे सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं, इसलिए पूरे पारितंत्र का संरक्षण किया जाना चाहिए । जीवविज्ञानी का संबंध ऐसे क्षेत्र से होता है जो अपेक्षाकृत प्रजाति-समृद्ध हों या जहाँ दुर्लभ, जोखिमग्रस्त या संकटग्रस्त प्रजातियाँ रहती हों या जहाँ ‘स्थानिक’ प्रजातियाँ हों जो कहीं और न मिलें ।
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चूँकि दुर्लभ स्थानिक प्रजातियाँ एक छोटे-से क्षेत्र में ही पाई जाती हैं, इसलिए मानव के कार्यकलाप के कारण ये आसानी से नष्ट हो जाती हैं । ऐसे क्षेत्रों को अतिरिक्त महत्त्व दिया जाना चाहिए क्योंकि उनकी जैव-विविधता संबंधित क्षेत्र की अपनी खास विशेषता होती है ।
हाथी जैसे पशुओं को विभिन्न मौसमों में भोजन के लिए अलग-अलग प्रकार के आवास चाहिए । वे वर्षा के बाद घास के खुल मैदानों में रहते हैं जहाँ नई उगी घास काफी पौष्टिक होती है । घास सूखने लगती है तो हाथी पेड़ों के पत्तों की चाह में जंगलों में चले जाते हैं । इसलिए हाथियों के लिए बना संरक्षित क्षेत्र काफी बड़ा होना चाहिए और परस्पर संबंधित प्रजातियों के एक पूरे समूह को सहारा देने के लिए उसमें विभिन्न प्रकार के आवास होने चाहिए ।
भारत के अभयारण्य और राष्ट्रीय पार्क:
भारत में 589 संरक्षित क्षेत्र हैं जिनमें 89 तो राष्ट्रीय पार्क और 500 अभयारण्य हैं । इनमें अनेक प्रकार के पारितंत्र और आवास शामिल हैं । इनमें से कुछ तो दुनिया में कहीं और न मिलनेवाले जंगली पौधों और प्राणियों की अत्यधिक संकटग्रस्त प्रजातियों को सुरक्षित रखने के लिए बनाए गए हैं ।
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ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क इस पारितंत्र का सबसे बड़ा अभयारण्य है तथा सुंदर बर्फीले चीते के आखिरी आवासों में से एक है । डाचीग्राम अकेला अभयारण्य है जहाँ दुर्लभ हंगुल (कश्मीरी हिरन) पाया जाता है । तराई क्षेत्र में अनेक अभयारण्य हैं; सबसे मशहूर काजीरंगा राष्ट्रीय पार्क है जहाँ हाथी, गौर, जंगली सूअर, दलदली हिरन और पाढ़े (Hog Deer) बड़ी संख्या में हैं तथा बाघ और चीते भी हैं ।
उसका पक्षी जीवन अत्यंत समृद्ध है और यहाँ बतखें, हंस, पेलिकन और स्टार्क भी पाए जाते हैं । मानस अभयारण्य में तराई की उपरोक्त प्रजातियों के अलावा दुर्लभ सुनहरा लंगूर और बहुत ही दुर्लभ पिग्गी हाग भी पाए जाते हैं जो दुनिया का सबसे छोटा, दुर्लभ सूअर है । फ्लोरिकन तराई के अभयारण्यों के कुछ एक अप्रभावित मैदानों में ही पाया जाता है ।
मध्यप्रदेश के साल के जंगलों में अनेक संरक्षित क्षेत्र हैं । कान्हा में हाथी पर बैठकर बाघ को देखने का अद्भुत अवसर मिलता है । यह अकेला संरक्षित क्षेत्र है जहाँ बारहसिंगा की एक उप-प्रजाति मिलती है ।
भरतपुर दुनिया में जलचर पक्षियों के सबसे मशहूर अभयारण्यों में एक है । हजारों बतखें, हंस, बगुले और दूसरे जलविनोदी पक्षी यहाँ देखे जा सकते हैं । यह बहुत ही दुर्लभ साइबेरियाई सारस का एकमात्र ठिकाना है, जो हर जाड़े में उड़कर भारत में आ जाता है । पिछले 20 वर्षों में इन सारसों की संख्या 30 या 40 से घटकर 2 या 3 रह गई है । 2002-03 में यहाँ कोई सारस नहीं आया और संभव है कि यह सुंदर पक्षी भारत में फिर न दिखाई पड़े ।
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थार के रेगिस्तान में मरुस्थल राष्ट्रीय पार्क (Desert National Park) में वन्यजीवन का संरक्षण किया जाता है । यहाँ काले हिरन, नीलगाय और चिंकारा बड़ी संख्या में देखे जाते हैं । इन शुष्क क्षेत्रों में ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भी रहता है ।
कोई 3-4 साल पहले जंगल में बाघ देखने के लिए रणथंभौर सबसे मशहूर अभयारण्य था । तब से शिकारी अनेक बाघों की जानें ले चुके हैं । कच्छ के बड़े और छोटे रन को बहुत ही दुर्लभ गोरखर (जंगली गधा), फ्लेमिंगो, स्टार कछुआ और रेगिस्तानी लोमड़ी के सरेक्षण के लिए अभयारण्यों में बदल दिया गया है ।
गुजरात में गिर का अभयारण्य शाही एशियाई शेर की बाकी बची संख्या का शरणस्थल है । यह काँटों और पर्णपाती वृक्षों का जंगल चीतल, साँभर और नीलगाय के बड़े-बड़े झुंडों का ठिकाना भी है ।
पश्चिमी घाट और उससे लगी पहाड़ियों के अभयारण्य देश के अत्यधिक विविधता वाले वनों में से कुछ के संरक्षक हैं । अत्यंत जोखिमग्रस्त प्रजातियों की कुछ मिसालें हैं मालाबार की बड़ी गिलहरी, उड़ती गिलहरी, अनेक प्रकार के पहाड़ी परिंदे, जलथलचारी प्राणियों, सरीसृपों और कीड़े-मकोड़ों की अनेक प्रजातियाँ ।
ये क्षेत्र अत्यधिक स्थानिक पौधों में भी समृद्ध हैं । भीमाशंकर, कोयना, चंदौली और राधानगरी जैसे अभयारण्य महाराष्ट्र के समृद्ध वनस्पति जीवन के संरक्षक हैं । यही भूमिका कर्नाटक में बाँदीपुर, भद्रा, दंडेली और नागरहोल आदि की, तथा केरल में एराविकुलम, परबीकुलम और साइलेंट वैली की है ।
नीलगिरि पहाड़ियों के समृद्ध अभयारण्य दक्षिण भारत में हाथियों के कुछ आखिरी झुंडों के संरक्षक हैं । इसकी मिसालें बाँदीपुर, मुदुमलाई, वायनाड और भद्रा हैं । पिछले दस वर्षों में इस क्षेत्र के दाँतों वाले हाथी भारी संख्या में हाथीदाँत के लालच में निमर्मता से मारे गए हैं । आज इन जंगलों में इन शाही पशुओं की बहुत थोड़ी संख्या ही बची है ।
तटीय पारितंत्रों के संरक्षण के लिए दो महत्त्वपूर्ण अभयारण्य उड़ीसा की चिल्का झील और तमिलनाडु में प्वाइंट कैलिमेयर हैं । सुंदरवन भारत के सबसे बड़े मैनग्रोव डेल्टा का संरक्षक है । गुजरात का मेरीन नेशनल पार्क छिछले समुद्री क्षेत्रों, द्वीपों, प्रवाल भित्तियों और विस्तृत पंकशिखरों (Mudflats) का संरक्षण करता है । अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह के बहुत ही खास द्वीपीय पारितंत्रों के संरक्षण के लिए वहाँ सौ से अधिक संरक्षित क्षेत्र बनाए गए हैं ।
एक समन्वित सरंक्षित क्षेत्र प्रणाली की आवश्यकता:
संरक्षित क्षेत्र कारगर हों, इसके लिए आवश्यक है कि वे हर एक जैव-भौगोलिक अंचल में स्थापित किए जाएँ । बेहद नाजुक पारितंत्रों, प्रजातियों की भारी विविधता या भारी स्थानीयता वाले क्षेत्रों को अपेक्षाकृत अधिक स्थान दिया जा सकता है । ये क्षेत्र आपस में समन्वित भी होने चाहिए और जहाँ भी संभव हो, साथ-साथ लगे क्षेत्रों में गलियारे बनाए जाने चाहिए ताकि वन्य प्राणी उनके बीच आ-जा सकें ।
हमारे देश में जहाँ जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, संरक्षित क्षेत्र बनाने के लिए बहुत अधिक भूमि निकालना आसान नहीं है । कृषि और अन्य कार्यों के लिए अधिक भूमि देने की आवश्यकता भूमि और संसाधन प्रबंध के लिए अधिकाधिक महत्त्व का विषय बन चुकी है । यह नए संरक्षित क्षेत्रों के निर्माण में एक बड़ी बाधा है । फिर भी अपनी बहुत ही समृद्ध जैव-विविधता के संरक्षण के लिए संरक्षित क्षेत्रों में वृद्धि करना तत्काल आवश्यक है ।
प्राकृतिक निर्जनता के एक बड़े भाग में पहले ही व्यापक परिवर्तन हो चुके हैं । जिन बचे-खुचे क्षेत्रों में प्रजातियों की भारी समृद्धि, पौधों और प्राणियों की भारी स्थानीयता या संकटग्रस्त प्रजातियाँ हैं उनको राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों के रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिए । दूसरे क्षेत्रों को स्थानीय जनता द्वारा प्रबंधित सामुदायिक संरक्षण क्षेत्रों का रूप दिया जा सकता है ।
अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधन संघ (The International Union for Conservation of Nature and Natural Resources-IUCN) का कहना है कि अगर जैव-विविधता का दीर्घकालीन संरक्षण करना है तो सभी पारितंत्रों का कम से कम 10 प्रतिशत भाग संरक्षित क्षेत्रों में शामिल किया जाना चाहिए ।
भारत में 2004 में केवल पाँच प्रतिशत भूमि 589 संरक्षित क्षेत्रों में शामिल थी । पर इसका एक बड़ा भाग साल और सागवान (टीक) के बागानों का है जो इमारती लकड़ी के लिए लगाए गए थे । इस तरह उनमें जैव-विविधता अपेक्षाकृत कम है और ‘प्राकृतिकपन’ का स्तर नीचा है । देश में घास के अच्छे मैदान थोड़े ही बचे हैं जिनको संरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया है । कुछ तो पहले की हरी-भरी चरागाहें थीं जो अब भारी चराई के बाद बस बंजर मात्र रह गई हैं ।
इनमें से अधिकांश क्षेत्रों का जैविक मूल्य कम है और उन्हें फिर से अधिक ‘प्राकृतिक’ बनाने के लिए, जहाँ पौधों और प्राणियों का पूरा समूह फिर से शरण पा सके, सावधानी से उनका प्रबंध करना आवश्यक है । दलदली जमीनों में बस कुछ को ही अभयारण्य बनाया गया है । इनको बेहतर प्रबंध की आवश्यकता है ।
संरक्षित क्षेत्रों की जैव-विविधता को सुरक्षित रखने की एक प्रमुख रणनीति उनके इर्दगिर्द बसने वाली जनता को संसाधनों का निर्वहनीय स्रोत प्रदान करना है क्योंकि संरक्षित क्षेत्रों में न तो वे चराई करा सकते हैं और न ही वहाँ से जलावन लकड़ी ले सकते हैं । ये संसाधन उन्हीं के क्षेत्रों में इनका विकास करके प्रदान किए जा सकते हैं । जलावन लकड़ी के बागान और संरक्षित क्षेत्रों से बाहर घास के मैदानों का अच्छा प्रबंध इन क्षेत्रों में वन्यजीवन के आवास पर पड़नेवाले दबाव को कम कर सकता है ।
प्रबंध के अच्छे तौर-तरीकों से यह सुनिश्चित होना चाहिए कि संरक्षित क्षेत्र की मौजूदगी से स्थानीय जनता को सीधे-सीधे आर्थिक लाभ मिलें । संरक्षित क्षेत्र के प्रबंध में स्थानीय जनता की भागीदारी और स्थानीय जनता की आय बढ़ाने के लिए पर्यटन की सुविधाओं का विकास संरक्षित क्षेत्र के लिए उनका समर्थन जुटा सकता है ।
सावधानी से तैयार की गई प्रबंध की योजना में ‘पारितंत्र विकास’ का एक घटक शामिल होना चाहिए जो स्थानीय जनता को ईंधन, चारे और वैकल्पिक आय के स्रोत प्रदान कर सकें । ऐसी योजना संरक्षित क्षेत्र के प्रबंध का एक महत्वपूर्ण पक्ष है ।
पौधों और प्राणियों की ऐसी अनेक प्रजातियाँ हैं जो हमारे संरक्षित क्षेत्रों के मौजूदा तंत्र के बाहर किसी सुरक्षा के बिना जीवित हैं । चूँकि जनता के जीवन को प्रभावित किए बिना और अधिक संरक्षित क्षेत्रों की अधिसूचना व्यावहारिक नहीं है, इसलिए सामुदायिक रिजर्व या सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र बनाने की वैकल्पिक रणनीतियाँ बनाने की आवश्यकता है । समतामूलक और निर्वहनीय ढंग से क्षेत्र के संसाधनों का उपयोग करते हुए जैव-विविधता के संरक्षण के लिए इनका प्रबंध स्थानीय जनता द्वारा किया जाना चाहिए ।
एक सामुदायिक संरक्षण क्षेत्र के लिए संरक्षण के सुस्पष्ट लक्ष्य होने चाहिए जो उस क्षेत्र की संभावित उपयोगिता का बलिदान किए बिना प्राप्त किए जा सकें । घटते जैविक संसाधनों के संरक्षण के महत्त्व पर एक सामूहिक पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम चलाकर ही जैव-विविधता के संरक्षण की बड़ी मुहिम शुरू की जा सकती है ।
बहिःस्थल संरक्षण (Ex-Situ Conservation):
किसी प्रजाति के संरक्षण का सबसे अच्छा ढंग उसके आवास को उन तमाम दूसरी प्रजातियों के साथ सुरक्षित रखना है जो उसमें प्राकृतिक ढंग से रहती हैं । इसे यथास्थल संरक्षण (in-situ conservation) कहा जाता है जिसका मतलब राष्ट्रीय पार्कों और अभयारण्यों का निर्माण करके उस प्रजाति को उसके अपने वातावरण में संरक्षण करना है । लेकिन ऐसी स्थितियाँ भी आती हैं जब कोई संकटग्रस्त प्रजाति विनाश के इतने करीब होती है कि अगर वैकल्पिक विधियाँ न अपनाई जाएँ तो वह प्रजाति तेजी से काल के गाल में चली जाएगी ।
इस रणनीति को बहिःस्थल संरक्षण (Ex-situ Conservation) कहते हैं, अर्थात पौधों के लिए वानस्पतिक उद्यान या प्राणियों के लिए चिड़ियाघर जैसी नियंत्रित स्थितियाँ पैदा करके उस प्रजाति को उसके प्राकृतिक आवास से बाहर संरक्षित करना । ऐसी जगहों पर कृत्रिम ढंग से बनाई गई दशाओं में उनकी संख्या बढ़ाने की विशेषज्ञता भी होती है । लेकिन किसी संरक्षित क्षेत्र के प्रबंध की अपेक्षा दुर्लभ पौधों और प्राणियों के लिए ऐसे प्रजनन कार्यक्रम अधिक महँगे होते हैं ।
पौधों के संरक्षण का एक और ढंग उनके जननद्रव्य (Germplasm) को जीन बैंक में सुरक्षित रखना है ताकि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग किया जा सके । यह और भी महँगा होता है ।
कोई प्राणी अगर विनाश के कगार पर हो तो सावधानी से उसका प्रजनन किया जाना चाहिए ताकि अंतःप्रजनन (Inbreeding) के कारण उसकी जीन संरचना कमजोर न पड़े । एक ही मूल के प्राणियों के आपसी प्रजनन से संतान की अनुकूलन क्षमता कम होती है, और पर्याप्त संतान पाने की क्षमता भी नष्ट हो सकती है ।
प्रजनन के आधुनिक कार्यक्रम चिड़ियाघरों में चलाए जाते हैं जो वन्यप्राणी की सभी आवश्यकताएँ प्रदान करते हैं-ऐसे बाड़ों समेत जो उसके वन्य आवास के समान होते हैं । कृत्रिम प्रजनन में सहायता देने की आवश्यकता भी पड़ सकती है । इस तरह जहाँ अधिकांश चिड़ियाघरों का मकसद दर्शकों को करीब से वन्य प्राणियों को देखने का अनुभव और प्रजातियों के बारे में सूचनाएँ प्रदान करना होता है, वहीं एक आधुनिक चिड़ियाघर को इन कार्यों से आगे जाकर संकटग्रस्त प्रजातियों के प्रजनन का कार्यक्रम भी संरक्षण के एक उपाय के रूप में चलाना होता है ।
भारत में बहिःस्थल संरक्षण के सफल कार्यक्रम हमारे मगरमच्छों की तीनों प्रजातियों के लिए चलाए गए हैं; ये अत्यधिक सफल रहे हैं । सबसे सफल उदाहरण मद्रास क्रोकोडाइल ट्रस्ट बैंक का है जिसमें मगरमच्छ 10 से बढ़कर 8,035 हो चुके हैं और यहाँ वे साल में दो बार अंडे देते हैं जबकि निर्जन में एक बार देते थे । हाल की एक और सफलता गुवाहाटी चिड़ियाघर में बहुत ही दुर्लभ पिग्गी सूअर का प्रजनन है । दिल्ली के चिड़ियाघर ने भी नोकदार सींगवाले दुर्लभ मणिपुरी हिरन का प्रजनन कराया है ।
लेकिन किसी प्रजाति के मूल निर्जन आवास में उसे फिर से खपाना एक सफल प्रजनन कार्यक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण होता है । इसके लिए विनष्ट आवास की पुनर्स्थापना की और शिकार, विघ्न-बाधाओं और अन्य मानव-निर्मित प्रभावों जैसे दूसरे कारणों को दूर करने की आवश्यकता होती है जो उस प्रजाति की संख्या में कमी के प्रमुख कारण रहे हों ।
फसलों और पशुधन की नस्लों का सरंक्षण:
भारत में कोई 50 साल पहले तक चावल की अनुमानतः 30,000 किस्में उगाई जाती थीं । इनमें से आज कुछ ही उगाई जाती हैं । हर जगह ऐसी नई किस्में उगाई जा रही हैं जो धान की हर मूल किस्मों के जननद्रव्य से विकसित की गई हैं । अगर सारी परंपरागत किस्में एकदम समाप्त हो जाएँ तो भविष्य में चावल की नई रोगरोधक किस्मों का विकास कठिन हो जाएगा ।
अनेक किस्मों को जीन बैंकों में सुरक्षित रखा गया है । लेकिन यह बहुत खर्चीला और जोखिम भरा, दोनों है । इसलिए किसानों को अनेक परंपरागत किस्में उगाने के लिए प्रेरित करना मानवजाति के भविष्य का एक महत्त्वपूर्ण मामला है । इस समय जीन बैंकों के संकलन में 34,000 से अधिक अनाज और 22,000 दालें हैं ।
अतीत में पालतू जानवरों को स्थानीय दशाओं से तालमेल बिठाने की योग्यता के आधार पर चुना जाता था और उनका प्रजनन कराया जाता था । भारत के परंपरागत खेतिहर पशुपालकों ने दो-तीन हजार वर्षों से पशुधन का चुनिंदा प्रजनन कराया है । भारत ने मवेशियों की 27, भेड़ों की 40, बकरियों की 22 और भैंसों की 8 किस्मों का प्रजनन कराया है । इन परंपरागत नस्लों को उनकी जनन संबंधी परिर्वतनीयता के कारण सुरक्षित रखा जाना चाहिए ।