Here is a compilation of experiments on electric current in Hindi language.
काँच को रेशम के कपड़े से घिसने पर काँच में धनात्मक और रेशम में ऋणात्मक विद्युत आवेश उत्पन्न होते हैं । ये आवेश पदार्थ पर स्थिर रहते हैं । इसलिए इन्हें स्थिर आवेश कहते है । आवेश का प्रवाह होने लगेगा । जब पानी नीचे की ओर बहता है, तब हम इसे पानी का प्रवाह करते हैं । इसी प्रकार विद्युतीय आवेशों के प्रवाह को ‘विद्युतधारा’ कहते हैं ।
करो और देखो:
बिजलीवाली टार्च में लगाई जानेवाली एक शुष्क सेल लो । उसके दो अग्र होते हैं, एक धनात्मक तथा दूसरा ऋणात्मक । आकृति में दिखाए अनुसार ताँबे के किन्हीं दो पतले तारों के एक-एक सिरे को इन अग्रों से जोडो । (आजकल शुष्क सेलों को जोड़ने के लिए एक बाक्स भी मिलता है ।) तारों के दूसरे सिरों को एक छोटे बल्व से जोड़ी । तुम क्या देखते हो ? सही-सही जोड़ते ही बल्ब प्रकाशित होता है ।
इस संयोजन में लगी हुई शुष्क विद्युत सेल ताँबे के तारों के स्थिर ऋणात्मक आवेशों पर बल लगाकर उन्हें गतिशील कर देती है । इस प्रकार निर्मित विद्युतधारा बल्ब के तंतु अर्थात पतले तार में से प्रवाहित होने पर तंतु गर्म हो जाता है और वह चमककर प्रकाश देने लगता है ।
विद्युत सेल का कर्मकरण:
विद्युत सेल का कर्मकरण समझने के लिए नीचे बताई गई कृति करो ।
करो और देखो:
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प्लास्टिक की तीन नलियाँ A, B तथा C लो । काँच की छोटी गोटियाँ लो । आकृति में दिखाए अनुसार नलियों को पकड़ों । नली A के एक सिरे से इन गोलियों को एक- एक करके नली में डालो । ये गोलियाँ ढाल की ओर लुढ़कते हुए सिरे C से बाहर निकलती हें । अत: काँच की गोटियों का प्रवाह A,B,C की ओर तो होगा परंतु इनका प्रवाह C से A की ओर नहीं होगा ।
यदि इन गोटियों को C नली के दूसरे सिरे के पास से उठाकर पुन: A तक लाएँ और नली में डाल दें, तो ही इनका ऐसा प्रवाह बना रहेगा । तुमने यहाँ जो कार्य वास्तव में किया है, वही कार्य विद्युत सेल करती है । यही कारण है कि सेल द्वारा लगाए गए (प्रयुक्त) बल को विद्युतवाहक बल कहते हैं ।
गतिशील इलेक्ट्रानों द्वारा विद्युतधारा मिलती है । तुमने देखा कि इलेक्ट्रानों को इस प्रकार गतिशील करने के लिए विद्युतवाहक बल की संपूर्ति विद्युत सेल की सहायता से की जाती है । ये सेलें विभिन्न प्रकारों में मिलती हैं । टार्च में उपयोगी शुष्क विद्युत सेल उनमें से एक प्रकार है ।
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सरल विद्युत सेल:
संलग्न आकृति में एक सरल विद्युत सेल के परिपथ का संयोजना दिखाया गया है । काँच के एक बरतन में जस्ते (Zn) तथा ताँबे (Cu) की एक-एक पट्टी एक-दूसरे से कुछ दूरी पर लटका दी जाती है । काँच के बरतन में तनु सल्फ्युरिक अम्ल का विलयन इतना डालते हैं कि दोनों पट्टीयों का पर्याप्त भाग अम्ल में डूब जाए ।
ताँबे की पट्टी धन ध्रुव (+) और जस्त की पट्टी ऋण ध्रुव (-) का कार्य करती है । इसका अर्थ यह है कि विद्युतधारा धन ध्रुव (ताँबा) से ऋण ध्रुव (जस्ता) की ओर प्रवाहित हो रही है । इस विद्युत परिपथ में एक विद्युत बल्ब तथा एक टैपन कुंजी लगी है ।
टैपन कुंजी द्वारा हम इच्छानुसार विद्युतधारा का प्रवाह शुरू या बंद कर सकते हैं । ऐसी सेल को ‘वोल्टा का सेल’ कहते हैं । इस सेल में निर्मित होनेवाली विद्युतधारा, सेल में होनेवाली रासायनिक अभिक्रिया के कारण प्रवाहित होती है ।
लैक्लांशे विद्युत सेल:
सरल वोल्टा सेल के बाद फ्रांसीसी वैज्ञानिक जार्ज लैक्लांश ने ई॰स॰ १८६६ में जो सेल तैयार की, उसे लैक्लांशे सेल कहते हैं । इस सेल में एक रंध्रमय बेलनाकार पात्र होता है, जिसमें मैंगनीज डाइआक्साइड तथा कार्बन के चूर्ण का चूर्ण भरा होता है । इसके बीचोंबीच कार्बन की एक छड़ होती है, जो धन ध्रुव का कार्य करती है ।
जस्ते की छड़ ऋण ध्रुव का कार्य करती है । काँच के एक बेलनाकार पात्र में अमोनियम क्लोराइड (नौसादर) का विलयन लेकर उसमें रंध्रमय पात्र तथा जस्ते की छड़ को ठीक से डुबा देते हैं । जस्ते और अमोनियम क्लोराइड के रासायनिक संयोग द्वारा विद्युतधारा मिलती है । वर्तमान समय में हम सर्वत्र जिस शुष्क विद्युत सेल का उपयोग करते हैं, वह वास्तव में लैक्लांशे सेल का ही सुधारित रूप है ।
शुष्क विद्युत सेल:
आजकल बाजार में छोटे-बड़े आकारवाली शुष्क विद्युत सेलें आसानी से उपलब्ध हैं । बिजली के खिलौनों, टार्च, ट्रांजिस्टर इत्यादि में इनका उपयोग किया जाता है ।
ऐसा ही एक अनुपयोगी सेल लो । उसका ऊपरी आवरण निकाल दो । अंदर तुम्हें एक सफेद आवरण दिखाई देगा । सेल का यह बाहरी आवरण जस्ते (Zn) से बना होता है । यही सेल का ऋण (-) ध्रुव है । इस आवरण को तोडो । अंदर बीचोंबीच कार्बन की एक छड़ दिखाई देगी । यह इस सेल का धन (+) ध्रुव है । कार्बन की छड़ के चारों ओर एक पतली थैली में मैंगनीज डाइआक्साइड (MnO2) तथा ग्रेफाइट (कार्बन) का मिश्रण भरा होता है ।
मिश्रण से भरी हुई इस थैली और बाहरवाले जस्ते के बेलनाकार पात्र के बीच की खाली जगह में जिंक क्लोराइड (ZnCl2), तथा अमोनियम क्लोराइड (NH4Cl) के गीले मिश्रण की लुगदी (प्रलेप) भरी होती है । बाद में कार्बन की छड़ के बाहरी सिरे पर धातु की एक टोपी लगाकर सेल को बंद कर देते हैं ।
इस सेल से विद्युतधारा प्राप्त होने के लिए जो रासायनिक अभिक्रिया होती है, वह अत्यंत मंद होती है । इसलिए यह अधिक समय तक होती रहती है । इसलिए शुष्क सेलों का कार्यकाल अन्य सेलों के कार्यकाल से अधिक होता है ।
निकेल – कैडमियम सेल:
आजकल कई विद्युत उपकरणों का संभारण (Handling) करना पड़ता । इन्हें ‘संभारणीय’ के रूप में जाना जाता है । उदाहरण, ड्रिल मशीन, बगीचों में उपयोग में लाए जानेवाले यंत्र इत्यादि । इन यंत्रों में निकेल-कैडमियम विद्युत सेल का उपयोग करते हैं ।
इस सेल में कैडमियम धातु ऋण ध्रुव और निकेल धातु धन ध्रुव होती हें । इन दोनों के मध्य पौटेशियम हाइड्राक्साइड नामक क्षार भरा होता है । यह सेल वायुरुद्ध कर दी जाती है । ऐसा करने से यह रिसती नहीं और इसका क्षरण भी नहीं होता । इसके अतिरिक्त इस सेल का मुख्य लाभ यह है कि इसे बार-बार आवेशित (Recharge) किया जा सकता है ।
बटन सेल:
बटन सेल का अर्थ है घुंडी के आकारवाली सेल । आजकल घड़ियों, बिजली के खिलौनों, कैमरों तथा गणकयंत्रों आदि में विद्युत सेल का उपयोग होने लगा है । जगह कम होने के कारण इन सेलों का आकार जितना संभव हो उतना छोटा रखना जरूरी है ।
विशेषकर घड़ियों में बटन सेल का उपयोग करते है । बटन सेल को ‘लीथियम सेल’ भी कहते हैं । ऐसी विद्युत सेलों में लीथियम आयरन फास्फेट ऋण ध्रुव तथा कार्बन धन ध्रुव होता है । दोनों के मध्य लीथियम का ही लवण भरा होता है ।
लीथियम सेलों का संभारण तो सुविधाजनक होता ही है, इसमें रिसाव न होने के कारण उपकरण के अन्य नाजुक घटकों को कोई हानि नहीं पहुँचती परंतु लीथियम सेलों को पुनरावेशित नहीं किया जा सकता । उसके स्थान पर दूसरे नए सेल का ही उपयोग करना पड़ता है ।
विद्युतधारा का चुंबकीय क्षेत्र:
करो और देखो:
दियासलाई की एक खाली डिबिया लो । उसमें स्वतंत्रतापूर्वक छूनेवाली एक चुंबकीय सुई इस प्रकार रखो कि वह ऊपर से दिखाई दे । डिबिया के चारों ओर ताँबे के तार के तीन-चार फेरे लपेटो । तार के दोनों सिरों को किसी शुष्क सेल के ध्रुवों से जोडो । आकृति में दिखाए अनुसार इस परिपथ में एक प्लग कुंजी भी जोड़ दो । प्लग कुंजी में से कुंजी निकालकर परिपथ को खुला रखो ।
चुंबकीय सुई की ओर ध्यान से देखो । यह उत्तर-दक्षिण दिशा में स्थिर होगी । अब सुई के समीप एक पट्टी चुंबक लाओ । सुई का विक्षेप स्पष्ट दिखाई देगा । पट्टी चुंबक को दूर हटा लो । सुई पुन: उत्तर-दक्षिण दिशा में स्थिर हो जाएगी । अब प्लग कुंजी लगा दो । डिबिया के चारों ओर लपेटे गए तार में से विद्युतधारा प्रवाहित होने लगेगी । सुई की ओर ध्यान से देखो ।
डिबिया के चारों ओर लिपटे तार में से विद्युतधारा प्रवाहित होते समय सुई में विक्षेप होने लगता है । कुंजी निकालते ही प्रवाह रुकने पर सुई स्थिर हो जाती है । किसी चालक में से विद्युतधारा प्रवाहित होते ही वह एक चुंबक की तरह कार्य करता है । इसके कारण उस चालक के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण होता है । इसलिए सुई में विक्षेप होता है ।
विद्युत चुंबकीय प्रेरण:
किसी तार के पेरों से संलग्न किसी चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन होने पर उस तार के फेरों में से विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है । ऐसे प्रवाह को प्रेरित विद्युतधारा कहते हैं । चुंबकीय क्षेत्र में होनेवाले परिवर्तन और उससे उत्पन्न होनेवाली विद्युतधारा के प्रवाह की क्रिया ‘विद्युत चुंबकीय प्रेरण’ कहते हैं ।
करो और देखो:
पृथक्कारी आवरणयुक्त ताँबे के तार से बनी घुमावदार रचना (कुंडली) लो । घेरों का व्यास एक सेमी तथा फेरों की संख्या अधिक-से-अधिक हो । फेरे बनानेवाले तार के सिरी को गैल्वनोमीटर G से जोड़ी । गैल्वनोमीटर G की सुई के विचलन द्वारा प्रवाह की दिशा तथा तीव्रता ज्ञात होती है ।
अब एक पट्टी चुंबक के उत्तरी ध्रुव को फेरों के समीप तेजी से लाओ । गैल्वनोमीटर की सुई में विचलन होता है । अब उत्तरी ध्रुव को तेजी से पीछे से ले जाओ । पुन: विचलन दिखाई देगा परंतु विपरीत दिशा में ।
इस आधार पर तुम्हें नीचे दिए गए निष्कर्ष प्राप्त होंगे:
(i) चुंबक में हलचल होने की स्थिति तक ही फेरों में से विद्युतधारा का प्रवाह होता है ।
(ii) चुंबक की हलचल की दिशा पर विद्युतधारा के प्रवाह की दिशा निर्भर होती है अर्थात चुंबक को समीप लाने पर प्रवाह की दिशा, चुंबक को दूर ले जाते समय की प्रवाह की दिशा के विपरीत होती है ।
इस प्रकार चुंबक और चालक की परस्पर हलचल द्वारा विद्युत चुंबकीय प्रेरण होने के कारण चालक में से विद्युतधारा प्रवाहित होने लगती है । विद्युत चुंबकीय प्रेरण के इस मौलिक प्रयोग का श्रेय माइकेल फैराडे को दिया जाता है ।
करो और देखो:
एक नाल चुंबक लो । उसके दोनों ध्रुवों के मध्य तार की एक कुंडली रखो । यह कुंडली चुंबक के ध्रुवों के मध्य घूम सकनेवाली होनी चाहिए । कुंडली में २५-३० फेरे होने चाहिए । कुंडली के तार के सिरों को खुला करके किसी शुष्क सेल से जोड़ी और इसे तुरंत हटा लो ।
कुंडली के फेरों में विक्षेप होता है । कुंडली में से विद्युतधारा प्रवाहित होते ही इसके फेरे चुंबक का कार्य करते हैं । उसके सिरों पर उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों का निर्माण होता है । यदि कुंडली के फेरों का उत्तरी ध्रुव, नाल चुंबक के उत्तरी ध्रुव के सामने होता है, तो प्रतिकर्षण होने के कारण स्वतंत्र लटकाई हुई कुंडली विक्षेपित होकर घूमने लगती है ।
इसी आधार पर आगे चलकर विद्युत मोटर का निर्माण हुआ । मोटर के आर्मेचर का अर्थ है तार की कुंडली के फेरे । उसमें प्रत्येक आधे फेरे के बाद, फेरों में से अर्थात आर्मेचर में से प्रवाहित होनेवाली विद्युतधारा की दिशा बदलनी पड़ती है, नहीं तो उत्तरी ध्रुव के नाल चुंबक के दक्षिणी ध्रुव के सामने आने के कारण आकर्षण होता है और डाली का छूना रुक जाता है ।
प्रत्येक आधे फेरे के बाद घूमनेवाली कुंडली में प्रवाह की दिशा बदलने के लिए दिक्परिवर्तक (काम्युटेटर) लगाया जाता है । आर्मेचर में से इस प्रकार विद्युतधारा प्रवाहित करके उसे गतिशील करने के सिद्धांत का उपयोग विद्युत मोटर में करते हैं ।
विद्युत चुंबक:
किसी चालक में से विद्युतधारा प्रवाहित करने पर वह एक चुंबक की भाँति कार्य करता है । ऐसा चुबक हम आसानी से बना सकते हैं । ऐसे चुंबक को ‘विद्युत चुंबक’ कहते हैं ।
करो और देखो:
लगभग ४०-५० सेमी लंबा ताँबे का एक ऐसा तार लो जिस पर प्लास्टिक का आवरण लगा हो । बाजार में ऐसा तार बिजली के सामानों की किसी दुकान में आसानी से मिलता है । इस तार को लोहे के किसी कील या स्क्रू पर लपेट दो । इस तार के दोनों सिरों को किसी शुष्क सेल से जोड़ो । परिपथ में प्लग तथा प्लग कुंजी भी लगा दो । इस कील के नीचे लोहे की छोटी पिनें फैलाकर रखो । प्लग में कुंजी
लगाओ ।
प्लग कुंजी लगाते ही ये पिनें कील की ओर आकर्षित होती हैं । अब कुंजी निकाल लो । सभी पिनें तुरंत नीचे गिर जाती हैं । कील के चारों ओर लपेटे गए तार में से विद्युतधारा प्रवाहित होते ही कील में चुंबकीय गुणधर्म आ जाता है । इसलिए पिनें कील की ओर आकर्षित होती हैं ।
प्लग कुंजी निकालते ही प्रवाह बंद हो जाता है और कील में उत्पन्न चुंबकत्व समाप्त हो जाता है जिससे पिनें नीचे गिर जाती हैं । विद्युत चुंबक का चुंबकत्व उसमें विद्युतधारा के प्रवाह तक ही टिकता है । अत: विद्युत चुंबक स्थाई चुंबक नहीं है ।
विद्युत चुंबक का एक बड़ा लाभ यह है कि तार में से प्रवाहित विद्युतधारा का परिमाण बढ़ाने पर, उत्पन्न चुंबकत्व की तीव्रता बढ़ती है । स्थाई चुंबक की शक्ति की एक निश्चित सीमा होती है । इसी गुणधर्म का उपयोग करके बड़ी-बड़ी क्रेनों द्वारा सामान उठाने-लादने में विद्युत चुंबकों का उपयोग किया जाता है । आजकल विद्युत सेलों द्वारा चलनेवाले खिलौने बाजार में आसानी से मिलते हैं । उनका हिल-हुलना विद्युत चुंबक द्वारा ही होता है ।
विद्युत घंटी:
मकानों के प्रवेश द्वार के पास लगी विद्युत घंटी से हम सब परिचित हैं । यदि तुम चाहो तो इसे घर पर स्वयं तैयार कर सकते हो । आकृति में दिखाए अनुसार नाल के आकारवाले लोहे के दो टुकड़ों पर प्लास्टिक के आवरणयुक्त ताँबे के तार के कई फेरे लपेट देते हैं ।
दीपावली के समय पर उपयोग में लाई गई फुलझड़ियों के बेकार हुए ७-८ तारों का अच्छा उपयोग हो सकता है । इस तार का एक सिरा विद्युत सेल के एक ध्रुव से जोड़ देते हैं । तार के फेरों (कुंडली) में से विद्युत धारा प्रवाहित होते ही यह विद्युत चुंबक का कार्य करने लगता है । इस चुंबक के पास लोहे की एक पट्टी रखते हैं ।
पट्टी से धातु की एक मोगरी जुड़ी होती है । यह धातु के एक कटोरी से टकरा सकती है । लोहे की पट्टी से एक संपर्क स्क्रू आकृति में दिखाए अनुसार जुड़ा होता है । सेल के दूसरे सिरे को इसी संपर्क स्क्रू से ही जोड़ा जाता है । कुंजी दबाते ही विद्युत परिपथ पूर्ण हो जाता है ।
उसी के साथ-साथ तार की कुंडली में भी विद्युतधारा प्रवाहित होने लगती है । फलत: विद्युत चुंबक निर्मित होने के कारण यह लोहे की लचीली पट्टी को अपनी ओर आकर्षित करता है । पट्टी के सिरे पर लगी मोगरी कटोरी से टकराने के कारण आवाज होती है ।
पट्टी के आकर्षित होने पर इसका स्क्रू के साथ का संपर्क टूट जाता है, जिससे विद्युतधारा का प्रवाह बंद हो जाता है । इससे विद्युत चुंबक का चुंबकीय प्रभाव समाप्त हो जाता है और लचीली पट्टी पुन: स्क्रू की ओर खींच ली जाती है ।
इसी के साथ संपर्क होते ही विद्युत परिपथ पूर्ण होने से पुन: ऊपर की क्रिया होती है और मोगरी की टक्कर से आवाज होती है । इसी प्रकार बार-बार विद्युतधारा के शुरू तथा बंद (मेक तथा ब्रेक) होने पर घंटी बजती रहती है ।
विद्युत परिपथ:
जब कोई विद्युत उपकरण विद्युत सेल से जोड़ा जाता है, तब विद्युत परिपथ पूर्ण होता है । इसके लिए कुछ घटकों की आवश्यकता होती है । संलग्न आकृति ध्यान से देखो ।
i. विद्युत सेल
ii. विद्युत बल्व – विद्युत उपकरण
iii. विद्युत चालक (वाहक) तार
iv. शुरू – बंदवाली कुंजी
प्रत्येक परिपथ में कम-से-कम इतने घटक तो होना आवश्यक है । कुंजी लगते (बंद) ही परिपथ पूर्ण होता है और वाहक तारों में से विद्युतधारा प्रवाहित होने लगती है जिससे बल्व चमककर प्रकाश देता है ।
ऊपर बनी आकृति में एक सेफ्टी पिन B है । A कील लकड़ी के एक टुकड़े में मजबूती से गड़ा होता है । जब सेफ्टी पिन कील में अटका दी जाती है, तब प्रवाह शुरू हो जाता है । किसी परिपथ का रेखांक्त करते समय कुछ संकेतों का उपयोग करना सुविधाजनक होता है ।
ऐसे कुछ संकेत नीचे दिए गए हैं:
यदि किसी विद्युत परिपथ में एक से अधिक सेले संयोजित हों, तो उस संयोजन को बैटरी कहते हैं ।
विद्युत चालक और विद्युत अवरोधक:
यदि किसी विद्युत परिपथ में ताँबे के तार के स्थान पर सूत से बना धागा लगा दें, तो क्या उपकरण काम करेगा ? जिन पदार्थों में से विद्युतधारा प्रवाहित होती है, उन पदार्थों को ‘विद्युत चालक’ कहते है । ताँबा, लोहा, एल्युमीनियम आदि धातुएँ विद्युतधारा की उत्तम चालक हैं ।
बल्व, विद्युत सेल तथा टैपन कुंजी के अतिरिक्त धातु की एक चाबी भी परिपथ में जुड़ी है । यह विद्युत चालक है । इसके द्वारा विद्युत परिपथ पूर्ण होता है और विद्युत उपकरण काम करना शुरू करते हैं । इसलिए बल्ब चमकता है । इसके विपरीत रबड़, कपड़ा तथा सूखी लकड़ी विद्युत अवरोधक हैं । इनमें से विद्युत धारा प्रवाहित नहीं होती ।