Read this article in Hindi to learn about the new constitutional order established after independence in India.
भारतीय संविधान में निहित केन्द्रीय सर्वोच्चता एक ऐतिहासिक देन रही है । परिसंघ व्यवस्था का मूल उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों में व्याप्त एकता के सूत्र को दृढ़ करते हुए देश के पूरे भौगोलिक क्षेत्र को एक पूर्णतया क्रियाशील इकाई के रूप में स्थापित करना है ।
यही कारण है विभिन्न देशों की परिसंघ व्यवस्था में निहित मूल संवेधानिक द्वैधता के बावजूद समय की बदलती मांग के परिप्रेक्ष्य में केन्द्र तथा क्षेत्रों के बीच परस्पर समझौते के परिणामस्वरूप केन्द्रीय सरकारें उत्तरोत्तर अधिक अधिकार प्राप्त करती गई हैं । अर्थात् राजनैतिक व्यवहार के स्तर पर शासन व्यवस्था उत्तरोत्तर अधिकाधिक केन्द्रीकृत होती गई है ।
अत: स्वाभाविक था कि ब्रिटिश शासनकाल में स्थापित प्रशासनिक व्यवस्था के केन्द्रीय सर्वोच्चता के सिद्धान्त को भारत की नई संवैधानिक व्यवस्था में बनाए रखा जाए । परन्तु इससे संवैधानिक व्यवस्था की आधारभूत परिसंघ संरचना में कोई अन्तर नहीं आया है ।
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भारतीय परिसंघ परस्पर अलग-अलग तथा न्यूनाधिक रूप में स्वतंत्र (अथवा स्वायत्त) क्षेत्रीय राजनीतिक इकाइयों के समागम का परिणाम न होकर दीर्घ काल से चली आ रही क्षेत्रीय स्तर पर विकेन्द्रित परन्तु केन्द्रीय प्रशासन के स्तर पर ऐकिक व्यवस्था को संवैधानिक तौर पर विकेन्द्रित करके देश के क्षेत्रीय उपांगों को स्वायत्तता देने के प्रयास का परिणाम था ।
अत: परिसंघीय राज्य व्यवस्था के अन्य उदाहरणों के विपरीत भारत में केन्द्रीय सरकार का अस्तित्व एक पूर्वगामी तथ्य था परन्तु क्षेत्रीय स्वायत्तता नई संवैधानिक संरचना का प्रतिफल थी । इसीलिए पुराने परिसंघ संविधानों के विपरीत भारत में केन्द्र और राज्यों (क्षेत्रों) के बीच विधायी शक्तियों के आबंटन में अवशिष्ट अधिकार केन्द्र के हिस्से में आ गए जिसके परिणामस्वरूप केन्द्र की सर्वोच्चता में और भी वृद्धि हुई । परन्तु इससे परिसंघ शासन व्यवस्था की आत्मा, अर्थात् क्षेत्रीय स्वायत्तता के साथ-साथ केन्द्रीय सर्वोच्चता के सिद्धान्त पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है ।
आस्ट्रेलियाई विधिविद ज्योफे सोयर ने भारतीय संविधान को ”परिसंघ परिस्थिति पर ऐकिक प्रतिक्रिया” कह कर पुकारा है सिवाय इसके कि संविधान में राष्ट्रपति के आपातकालीन अधिकारों के परिणामस्वरूप आपाए घोषित हो जाने के बाद देश का संविधान आपात अवधि के लिए वैधानिक दृष्टि से ऐकिक संविधान में परिवर्तित हो जाता है ।
भारत की संसद दो सदनों में विभक्त है । एक लोक सभा (जो जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से बना है), और दूसरा राज्य सभा जिसके सदस्य भिन्न-भिन्न राज्यों की विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा चुन कर आते हैं ।
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विभिन्न राज्यों से चुने जाने वाले राज्य सभा सदस्यों की संख्या सम्बद्ध राज्यों की कुल जनसंख्या के आधार पर निर्धारित होती है । अत: भारत की राज्य सभा सही अर्थों में ”राज्यों का सदन” नहीं है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमरीका अथवा आस्ट्रेलिया में जहां इस सदन में सभी राज्यों को बराबर का प्रतिनिधित्व प्राप्त है ।
भारत में संघ की कार्यपालिका मूलतया ब्रिटिश पार्लियामेंट व्यवस्था के अनुसार चुने हुए प्रतिनिधियों में से चुनी गई गठित मंत्रिपरिषद द्वारा संचालित व्यवस्था है । राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक अधिकारी है और वह विधान सभाओं के सदस्यों तथा लोक सभा के प्रतिनिधियों के सम्मिलित मतों के आधार पर पांच वर्ष के लिए निर्वाचित होता है संवैधानिक उपबंध के अनुसार राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कार्य करता है परन्तु संविधान राष्ट्रपति को अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेने और मंत्रिपरिषद को तदनुरूप परामर्श देने के पर्याप्त अवसर प्रदान करता है ।
अत: भारत का राष्ट्रपति ब्रिटिश सम्राट तथा जर्मन राष्ट्रपति की अपेक्षा संवैधानिक रूप में अधिक प्रभावी है यह तथ्य डा॰ शंकर दयाल शर्मा तथा श्री के.आर. नारायणन द्वारा राष्ट्रपति के रूप में लिए गए निर्णयों से भली प्रकार स्पष्ट है । विशेषकर धारा 356 के दुरुपयोग को रोकने की दिशा में, राष्ट्रपति की पहल निश्चय ही इस पद की गरिमा और प्रभाव का साक्षी है ।
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियां तीन सूचियों में विभक्त हैं । एक, केन्द्र की विधायी शक्ति जिसके अधीन संसद सम्पूर्ण देश के लिए विधि बनाने के लिए प्राधिकृत है । दूसरी, राज्यों की विधायी शक्ति जिसके अधीन प्रत्येक राज्य की विधायिका अपने राज्य के लिए संविधान में सूचीबद्ध विषयों पर विधि पारित करने के लिए पूर्णतया प्राधिकृत है । तीसरी सूची समवर्ती अधिकारों की है ।
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इस सूची में दिए गए विषयों पर केन्द्र और राज्य परस्पर सहमति के आधार पर निर्णय लेते हैं जिससे देश हित और केन्द्रीय आदर्शों के साथ-साथ भिन्न-भिन्न राज्यों की विशिष्ट क्षेत्रीय आवश्यकताओं पर सम्यक् विचार करके निर्णय लिया जा सकता है ।
इस विषय में भारतीय संविधान अपने पूर्वगामी सभी परिसंघ संविधानों से भिन्न हैं । संयुक्त राज्य अमरीका तथा आस्ट्रेलिया के संविधान में केवल केन्द्रीय विधायिका की शक्तियों की सूची दी गई है, शेष अधिकार राज्यों की विधायिकाओं में निहित हैं ।
दूसरी ओर कनाडा के संविधान में केन्द्र तथा राज्यों के अलग-अलग अधिकार क्षेत्रों की दो सूचियां दी गई हैं । हमारे वर्तमान संविधान का यह उपबंध 1935 के संविधान में भी मौजूद था । संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूची में कुल 99 विषय शामिल हैं जिन पर केवल केन्द्रीय विधायिका ही विधि बना सकती है । इन विषयों में राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति, बैंक व्यवस्था, मुद्रा विनिमय तथा नोटों और सिक्कों का मुद्रण, तथा विभिन्न प्रकार के कर लगाने के अधिकार सम्मिलित हैं ।
दूसरी सूची में राज्यों की विधायिकाओं के अधिकार क्षेत्र अन्तर्गत कुल 61 विषय सम्मिलित हैं जिन पर प्रत्येक राज्य की विधायिका स्वतंत्र रूप से नीतिगत निर्णय ले सकती है । इस सूची के अनुसार राज्य में पुलिस, स्थानीय शासन, लोक स्वास्थ्य और स्वच्छता, कृषि, पशु धन, तथा कृषि भूमि पर कर और अल्कोहालिक लिकर आदि शामिल हैं ।
समवर्ती सूची के अन्तर्गत कुल 52 विषय गिनाए गए हैं । इनमें प्रमुखतया दंडविधि, दंड प्रक्रिया, नागरिक संहिता, विवाह संविदा और अपकृत्य, न्यास, कारखाने, समाचार पत्र आर्थिक तथा सामाजिक योजना सम्मिलित हें ।
केन्द्र तथा राज्यों की शक्तियों के परस्पर अधिच्छादन की स्थिति में केन्द्रीय विधायिका की सर्वोच्चता का सिद्धान्त मान्य है । अर्थात सिद्धान्तत राज्य विधान सभाओं की विधायी शक्ति केन्द्रीय विधायिका द्वारा अपनी अधिकारिता में सम्मिलित विषयों पर निर्णय लेने के पूर्ण अधिकार स्वातंत्र्य पर निर्भर हैं ।
केन्द्र की सर्वोच्चता के सिद्धान्त के अनुरूप राज्यों के राज्यपाल प्रधान मंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए गए संवैधानिक अधिकारी होते हैं जो राज्यों की कार्यपालिका के काम तथा राज्य की स्थिति पर समय-समय पर राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट भेजते रहते हैं ।
यदि इन प्रतिवेदनों के आधार पर राष्ट्रपति को ऐसा विश्वास हो जाता है कि राज्य का शासन संविधान के उपबंधों के अनुरूप नहीं चल सकता हे तो राज्य में छह महीने की अवधि के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता हैं किन्तु केवल तभी जब केन्द्रीय विधायिका के दोनो सदनों में इस आशय का प्रस्ताव विधिवत स्वीकार कर लिया जाए ।
राज्यों के बीच वाणिज्य और व्यापार सम्बन्ध पूर्णतया प्रतिबन्ध मुक्त हैं । राज्य सरकारें ऐसे किसी व्यापार संचार पर अपने संवैधानिक अधिकार के अनुरूप कर वसूल कर सकती हैं । देश की न्यायपालिका पूर्णतया समन्वित है अत: सम्पूर्ण देश में एक ही प्रकार की न्याय व्यवस्था व्याप्त हैं ।
विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश में कार्य करते है तथा उनके निर्णय की अपील उच्चतम न्यायालय में होती है । भारत का उच्चतम न्यायालय विधि सम्बन्धी सभी विषयो का सर्वोच्च न्यायालय है ।
संयुक्त राज्य अमरीका के संविधान निर्माताओं ने केन्द्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के आबंटन के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि वित्तीय संसाधन राज्यों के जीवन का मूलाधार हैं, यही हर राजनीतिक इकाई को जीवन दायिनी शक्ति प्रदान करता है क्योंकि ये संसाधन ही किसी राज्य को अपने कर्तव्यों का पालन करने की क्षमता प्रदान करते हें ।
अत: परिसंघ व्यवस्था में राज्यों की स्वायत्तता की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है कि उनको अपने उत्तरदायित्वों को ठीक तरह से निभाने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन प्राप्त हों । भारत के संविधान में इन संसाधनों को उद्ग्रहण के अधिकार केन्द्र और राज्यों के बीच स्पष्टतया निर्धारित हैं परन्तु इस क्षेत्र में भी केन्द्र की सर्वोच्चता बनाए रखी गई है ।
परिणामस्वरूप केन्द्र द्वारा उगाहे गए कर आदि की संचित राशि में से राज्यों की आवश्यकता के अनुरूप अनुदान देने का उपबंध है । उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है केन्द्र द्वारा उद्ग्रहति संपूर्ण राशि मात्र भारत की संचित निधि न होकर राज्यों की संचित निधि भी है क्योंकि केन्द्र द्वारा संचित राशि में से राज्यों को उनकी आवश्यकतानुरूप अनुदान का संवैधानिक प्राविधान है ।
किस राज्य को केन्द्र से कितनी सहायता राशि मिलेगी तथा इस आबंटन का क्या सिद्धान्त होगा यह निर्धारित करने के लिए संविधान में प्रति पांचवें वर्ष पांच सदस्यों का एक वित्त आयोग नियुक्त करने का उपबंध है ।
उच्चतम न्यायालय के अनुसार भारत के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र के संसाधनों के उपयोग की दृष्टि से संघ तथा विभिन्न राज्य सम्मिलित रूप में एक ही समग्र व्यवस्था के अन्योन्याश्रयी अवयव हैं । संक्षेप में भारत के संविधान में राज्यों को पर्याप्त वित्तीय आधार प्राप्त है तथा भारत की परिसंघ व्यवस्था में निहित क्षेत्रीय स्वायत्तता के मूल सिद्धान्त को समुचित समादर मिला हैं ।