Read this article to learn about the impact of globalization on world politics in Hindi language.
यह सामान्य मान्यता है कि अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में संतुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि विश्व अनेक शक्तिशाली राज्यों में बंटा हो परन्तु साथ ही उसमें किसी एक राज्य का वर्चस्व निर्विवाद बना रहे ।
उदाहरणार्थ प्रथम विश्व युद्ध के पहले तक ग्रेट ब्रिटेन विश्व की सबसे महान आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक शक्ति था जिसके कारण उसकी बात सर्वत्र सुनी जाती थी । परिणामस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों में स्थायित्व बना हुआ था ।
न्यूनाधिक रूप में यह स्थिति द्वितीय विश्व युद्ध तक चलती रही थी । उसके पश्चात् यद्यपि विश्व व्यवस्था के द्विध्रुवीय बन जाने के बाद विश्व राजनीति के स्वरूप में आमूल परिवर्तन आए थे परन्तु दो कारणों से अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के व्यवहार में शीघ्र ही संतुलन स्थापित हो गया था ।
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एक कारण यह था कि युद्ध के भयावह परिणामों को देखते हुए दोनों ही महाशक्तियां आपसी तनाव के अवसरों से बचने का प्रयास करने लगी थीं जिससे यथास्थिति बनी रहे । दूसरा कारण यह था कि सोवियत रूस और अन्य साम्यवादी देशों के अतिरिक्त सर्वत्र पूंजीवादी व्यवस्था का बोलबाला था और उसके नए महानायक संयुक्त राज्य अमरीका का वर्चस्व निर्विवाद था ।
अत: तथाकथित स्वतंत्र विश्व (फ्री वर्ल्ड) में संयुक्त राज्य का प्राधान्य सर्वव्यापी था क्योंकि विश्व की सबसे बड़ी सामरिक शक्ति होने के कारण वह विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था से सीधे तौर पर जुड़ गया था । 1990 तक ये दोनों ही कारण प्राय: समाप्त हो गए थे ।
वारसा संधि की समाप्ति तथा सोवियत संघ के विघटन के फलस्वरूप चालीस वर्ष पुराना शक्ति संतुलन अकस्मात् समाप्त हो गया था ओर संयुक्त राज्य विश्व की सबसे बड़ी और एकमात्र महाशक्ति के रूप में स्थापित हो गया । यद्यपि संयुक्त राज्य अमरीका अभी भी आर्थिक दष्टि से विश्व की सबसे सम्पत और सबसे बड़ी शक्ति के रूप में विद्यमान था परन्तु विश्व अर्थव्यवस्था में उसकी सर्वागीण प्रधानता (हेजेमनी) समाप्त हो गई थी ।
विश्व अर्थव्यवस्था अब त्रिध्रुवीय हो गई थी तथा अपनी आर्थिक सम्पन्नता के होते हुए भी संयुक्त राज्य विश्व का सबसे बड़ा ऋणी देश बन गया था । जर्मनी ओर जापान की विकास गति अमरीकी विकास गति से बहुत अधिक थी ओर ये दोनों देश विश्व स्तर पर अमरीका के व्यापारिक प्रतिस्पर्धा बन गए थे ।
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यूरोपीय संगठन की आर्थिक शक्ति के विकास के बाद स्थिति उत्तरोत्तर ओर भी बदलती जा रही है । विश्व राजनीति का वर्तमान दौर प्राधान्य विहीन (नान हेजेमोनिक) बन गया है । परिणामस्वरूप अन्तरराष्ट्रीय राजनीति में भूमण्डलीकरण के बावजूद अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है क्योंकि आज किसी एक देश के लिए विश्व के अन्य देशों द्वारा अपनी बात मनवाना सरल नहीं रह गया है ।
इसका एक उपयुक्त उदाहरण भारत द्वारा पोखरन-2 विस्फोट किए जाने के पश्चात उत्पन्न स्थिति पर विभित्र देशों की परस्पर विरोधी प्रतिक्रिया में परिलक्षित है । संयुक्त राज्य द्वारा भारत पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा की चिंता न करते हुए अनेक देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में पूंजी निवेश के लिए तत्पर हैं ।
साथ ही फ्रांस ओर सोवियत संघ इस प्रश्न पर संयुक्त राज्य के साथ नहीं हैं । विश्व स्तर पर शान्ति के वर्तमान दौर में अन्तरराष्ट्रीय बाजार और व्यापार करने और लाभ कमाने के अवसर की खोज सम्पन्न राज्यों के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का मूल निर्णायक बन गया है ।
अत: उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध की भांति आज पुन: ओद्योगिक दृष्टि से उन्नत और धनी व्यापारी देश विश्व स्तर पर एक दूसरे से आर्थिक प्रतिस्पर्धा में लगे हुए हैं । ऐसे में, यदि विश्व शान्ति भंग करने वाली कोई बड़ी घटना न घटी तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनिश्चितता का वर्तमान दौर लम्बे अवधि तक बने रहने की सम्भावना है क्योंकि बाजार व्यवस्था में किसी अकेले देश की सर्वव्यापी प्रधानता स्थापित होने की सम्भावना बहुत कम है ।
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पूंजी के भूमण्डलीकरण के साथ-साथ व्यापार और उद्योगों का विराज्यक्षेत्रीयकरण (डिटेरीटोरियलाइजेशन) हुआ है । उदारहण के लिए संयुक्त राज्य अमरीका के प्राय: सभी बड़े ओद्योगिक और व्यापारिक संस्थानों ने विश्व के विभिन्न भागों में क्षेत्रीय इकाइयां स्थापित कर ली हैं ।
जहां एक और उनकी अमरीकी इकाइयों से प्राप्त लाभ की दर निरन्तर घटती जा रही हे वहीं समुद्र पार स्थित इकाइयों के लाभ की दर उत्तरोत्तर बढ़ रही है । उद्योगों के अन्तरराष्ट्रीय स्तर के विकेन्द्रीकरण का देश के लिए दूरगामी प्रभाव हो सकता है क्योंकि विदेशों में इस प्रकार के पूंजी निवेश से देश की जनता ओद्योगीकरण के लाभ से वंचित रह जाती है जिससे सामान्यजन में असंतोष उभरना स्वाभाविक है ।
परन्तु अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की दृष्टि से विश्व की आर्थिक शक्तियों का समुद्रपार के क्षेत्रों मे ओद्योगिक प्रसार विश्व शांति के लिए शुभ है । देश के बाहर लगी पूंजी की सुरक्षा के लिए आवश्यक है कि विश्व में शान्ति का वातावरण बना रहे अत: आशा की जाती है कि यथा सम्भव ये शक्तियां युद्ध की सम्भावनाओं को कम करने का प्रयास करेंगी ।
साथ ही विराज्यक्षेत्री (डिटेरीटोरियलाइज्ड) आर्थिक प्रसार के परिणामस्वरूप राज्यों के ऐकिक स्वरूप प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है क्योंकि आज की स्थिति में उन्नत ओद्योगिक ओर व्यापारिक देशों की क्षेत्रीय सम्प्रभुता पूंजी निवेश और ओद्योगिक उत्पादन तथा सेवा व्यवसाय के भूमण्डलीकरण के फलस्वरूप आधी-अधूरी हो गई है क्योंकि पिछले तीन दशकों में इन देशों के वित्तीय व्यापारिक और ओद्योगिक संस्थान उत्तरोत्तर राष्ट्रीय कम और अन्तरराष्ट्रीय अधिक हो गए हैं ।
ऐसी स्थिति में व्यापारिक हितों की सुरक्षा के प्रश्न पर युद्ध की सम्भावना बहुत कम हो गई है क्योंकि कैस्टेल्स (1989) के शब्दों में वर्तमान युग में देशों की भूराजनीतिक अर्थव्यवस्था (जिओपोलिटिकल इकानमी) आर्थिक गुरुत्वाकर्षण के सामान्य केन्द्रों (ओद्योगिक इकाइयों, ओद्योगिक क्षेत्रों) से नियंत्रित होने के स्थान गर विभिन्न प्रकार के प्रवाह क्षेत्रों (स्पेसेज आवफ्लोज) से नियंत्रित होने लगे हैं ।
इनमें मुद्रा, सूचना, व्यापार ओर श्रम के प्रवाह शामिल हैं । राष्ट्रों की आर्थिक व्यवस्था के अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विकेन्द्रित होने की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अब व्यापारिक वर्ग में अन्तरराष्ट्रीय स्तर का भाईचारा बढ़ा है और उनमें स्वार्थ सुरक्षा के लिए आपसी एकता का भाव संचरित होने लगा है ।
फलस्वरूप देशों की आन्तरिक राजनीति दिनानुदिन अन्तरराष्ट्रीय आार्थिक व्यवस्था के उतार चढ़ाव से अधिकाधिक प्रभावित होने लगी है । इसके कारण राज्यों की आन्तरिक राजनीति में अन्तरराष्ट्रीयकरण की प्रवृत्ति बड़ी है ।
इस प्रकार राज्यों के राजनीतिक जीवन में दो परस्पर विरोधी राजनीतिक विचारधाराओं को बढ़ावा मिला है । सामान्यतया सम्पन्न ओर उच्च व्यापारिक वर्ग आर्थिक भूमण्डलीकरण का पक्षधर है जबकि छोटे-छोटे व्यापारी और लघु तथा मध्यम श्रेणी के उद्योगकर्मी भूमण्डलीकरण के विरोध और स्वदेशीकरण के पक्षधर हैं; मध्यवर्ग ओर श्रमजीवी लोगों में भी अधिकांश देश के जीवन में विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप के विरोधी हैं ।
परन्तु यह विभेद ऐतिहासिक वामपंथ बनाम दक्षिण पंथ पर केन्द्रित विभेद से बहुत भिन्न है । यही कारण है कि सिद्धान्तत भारतीय जनता पार्टी ओर विभिन्न साम्यवादी दल दोनों ही अनियंत्रित भूमण्डलीकरण के घोर विरोधी ओर अपने-अपने तरह से स्वदेशी के पक्षधर रहे हैं ।