This article will help you to differentiate between spatially geography and political geography in Hindi language.
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि राजनीतिक भूगोल समाज की राजनीतिक गतिविधियों और उसके क्रिया-कलाप की बेहतर समझ प्राप्त करने की दिशा में भौगोलिक परिदृष्टि से किया जाने वाला प्रयास है ।
राजनीति मूलतया जीवन की गति को दिशा देने का सामूहिक प्रयास है तथा बहुत हद तक राज्य का आधुनिक संगठनात्मक स्वरूप इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु किए गए प्रयासों की परिणति है । अत: समाज की बदलती आवश्यकताओं के साथ-साथ राजनीतिक भूगोल के अध्ययन की मान्यताओं, तथा समस्याओं और घटनाओं को देखने के इसके दंग में समय-समय पर अनेक परिवर्तन आए हैं ।
कुछ वर्षों के दौरान विभिन्न अवधारणात्मक परिवर्तन इसी प्रक्रिया के परिणाम थे । यदि इसके अतिरेकी पक्ष को छोड़ दें तो विष-व्यवस्था परिदृष्टि के प्रवेश ने भी राजनीतिक भूगोल में यही भूमिका निभाई थी ।
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परन्तु क्रांति अथवा नव-निर्माण के दावे अतिरेकी, आत्मश्लाधा से प्रेरित और काल्पनिक थे । यद्यपि विश्व स्तरीय पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था का प्रादुर्भाव दो सौ वर्ष उपनिवेशवाद की स्थापना के साथ ही हो गया था परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् इसके स्वरूप में बहुत बडा गुणात्मक अन्तर आया था । युद्ध के पूर्व का मग साम्राज्यवादी युग था । करीब आधा विश्व ब्रिटिश साम्राज्य के शासन में था ।
ऐसे में विश्व की प्रमुख आर्थिक और राजनीतिक शक्तियां अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के बढ़ते महत्व के होते हुए भी मूलतया आत्म निर्भर इकाइयां थीं । उनकी इस आत्म निर्भरता में उनके उपनिवेशों का महत्वपूर्ण योगदाम था ।
इस प्रकार की अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय जीवन मुख्यतया देश की सीमाओं तक ही सीमित और बाहरी प्रभावों से सुरक्षित था । साथ ही उस समय तक विश्व-व्यवस्था में स्वतन्त्र देशों की संख्या उंगलियों पर गिनी जा सकती थी क्योंकि सम्पूर्ण एशिया और अफ्रीका परतंत्र थे और इस कारण व्यवस्था में सीधी सहभागिता से वंचित थे ।
साम्राज्यों के विश्वव्यापी स्वरूप के कारण अफ्रीकी और एशियाई क्षेत्रों का यूरोपीय देशों के साथ होने वाला व्यापार साम्राज्य के स्तर पर होने वाला आन्तरिक व्यापार था । संक्षेप में 1945 के पहले विश्व समाज मूलतया राज्य-सत्ता-प्रधान समाज था जिसमें विश्व-व्यवस्था की महत्वपूर्ण भूमिका थी परन्तु दैनंदिन जीवन के स्तर पर भिन्न-भिन्न देशों की आंतरिक राजनीति में इसकी निर्णायक भूमिका नहीं थी ।
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विश्व युद्ध के पश्चात् स्थिति एक दम बदल गई । धीरे-धीरे सम्पूर्ण अफ्रीका, एशिया प्रशान्त सागर के और दक्षिण अमरीकी देश जो अभी तक राजनीतिक रूप से परतंत्र थे अब प्रमुतासम्पन्न राजनीतिक इकाइयों के रूप में स्थापित हो गए ।
ऐसे में औद्योगिक दृष्टि से विकसित और सम्पन्न यूरोपीय और अमरीकी देशों के हित में था कि विश्व आर्थिक व्यवस्था का पुनर्गठन कर देशों के बीच आर्थिक सम्बन्धों को नियमबद्ध बनाया जाए । वर्तमान विश्व अर्थव्यवस्था इन्हीं प्रयासों का परिणाम है । विकसित यूरोपीय और अमरीकी देशों ने एक जुट होकर नई व्यवस्था में अपने हितों की सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध कर लिया । उनका ऐसा करना स्वाभाविक ही था ।
दुनिया के विकासशील देश विकसित देशो से प्राप्त-ऋणों (”सहायता”) की बैसाखी के सहारे खड़े थे अत: मूल दर्शक की भांति जो कुछ हो रहा था उसे दखते रहना उनकी विवशता थी । इसका परिणाम यह हुआ कि विश्व युद्ध के पश्चात् संसार के सभी देश विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था के अकाट्य बन्धन में बंध गए ।
संचार माध्यमों में क्रांतिकारी परिवर्तनों ने विश्व-व्यवस्था का बाहुपाश और कड़ा कर दिया है क्योंकि अब बड़े से बड़ा व्यापारिक लेन-देन घर बैठे-बैठे ही करना सम्भव हो गया । इन तकनीकी परिवर्तनों के परिणामस्वरूप हमारा विश्व उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रबन्धनीय इकाई बन गया है क्योंकि अब कोड देशों की राजधानियों से सम्पूर्ण विश्व का नियंत्रण सम्भव हो गया है ।
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यही कारण है कि विकसित देशों में विश्व व्यवस्था अब स्थानीय जीवन का अन्तिम सत्य बन गई है । विकासशील देशों में भी इसका प्रभाव द्रुत गति से फैल रहा है । परन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि भूमण्डलीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण प्रभुतासम्पन्न राष्ट्रीय राजनीतिक इकाइयों के शासन तंत्र की उनके नागरिकों के जीवन में अब महत्वपूर्ण भूमिका नहीं रही ।
राष्ट्रीय इकाइयों की सारी राजनीतिक गतिविधियां आज भी उनकी राष्ट्रीय व्यवस्था के आन्तरिक मुद्दों पर केन्द्रित हें यद्यपि उनके राज्यतंत्रों की प्रभावशीलता में पर्याप्त ह्रास आया है । मूल सत्य यह है कि कुछ दशकों में विश्व स्तरीय पूंजीवादी व्यवस्था के उत्तरोत्तर बढ़ते प्रभाव के परिणामस्वरूप आज सर्वत्र नागरिकों का आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन दो परस्पर सम्बद्ध निर्णायक प्रभाव वाले तत्वों (सत्य) द्वारा नियंत्रित होने लगा है ।
एक यह कि राज्य सत्ता राष्ट्रीय है और दूसरा यह कि विश्व व्यवस्था देशों के आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित करती है । इन परिवर्तनों के फलस्वरूप आज विश्व एक ऐसी बृहत् सामाजिक इकाई बन गया है जिसमें विभिन्न राष्ट्रीय राजनीतिक इकाइयां अलग-अलग पहचान वाले परिवारों के रूप में विद्यमान हैं ।
अत: आज के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि हम वर्तमान जीवन के इन दोनों पक्षों को उनकी समग्रता में देखें तथा राजनीतिक क्षेत्रों और समस्याओं के अध्ययन में दोनो प्रकार के प्रभावों को आवश्यकतानुरूप उचित महत्व दें ।
राजनीतिक भूगोल के वैचारिक इतिहास में समय-समय पर घटित होने वाले अन्य अवधारणात्मक परिवर्तनों की भांति विश्व व्यवस्था परिदृष्टि भी राजनीतिक जीवन के बदले आयाम के नवीन पक्षों को समझने तथा अपने अध्ययन में उनको समाविष्ट करने की दिशा में एक नया कदम हैं ।
धीरे-धीरे विषय के अधिकांश अध्येता ”नई” और ”पुरानी” अवधारणाओं के बीच निरन्तरता का तत्व पहचानने लगे हैं । परिणामस्वरूप राजनीतिक भूगोल पुन राज्यों की राजनीतिक व्यवस्था का समग्र अध्ययन बन गया है ।
प्रत्येक प्रभुतासम्पन्न राजनीतिक इकाई किसी विशिष्ट भूखण्ड तथा उसके निवासियों के बीच उदभूत आत्मिक ऐतिहासिक सम्बन्धों पर आधारित व्यवस्थाबद्ध अधिष्ठान है । राजसत्ता का विकास देश के निवासियों और उनके निवास क्षेत्र के बीच अनिवार्य सम्बन्धों के नियमन और इन नियमों के अनुपालन हेतु आवश्यक यंत्रावली के रूप में हुआ था ।
अत: प्रत्येक राज्य एक प्रकार का मानव व्यवस्था जनित स्थान है तथा राजनीतिक भूगोल इस विशिष्ट प्रकार के स्थान का भौगोलिक अध्ययन । राज्य का क्षेत्रात्मक स्वरूप त्रिस्तरीय है अवस्थानीय (अर्थात् बस्तियों के स्तर पर), राष्ट्रीय, और अन्तरराष्ट्रीय ।
तीनों स्तर परस्पर अन्योन्याश्रयी अन्तरसम्बन्धों से जुडे हैं । अत: किसी एक स्तर का अध्ययन अन्य दोनों स्तरों से काट कर करना सम्भव नहीं है । राजनीतिक भूगोल राजनीतिक जीवन का त्रिस्तरीय और समग्र भौगोलिक अध्ययन है ।
1970 के दशक के पूर्व तक राजनीतिक भूगोल न्यूनाधिक रूप में राज्यों का स्थानिक और त्रिस्तरीय अध्ययन के रूप में स्थापित था । परन्तु इस दशक के दौरान स्थिति में अनेक दूरगामी परिवर्तन आए । सत्तर के दशक में अमरीका में प्रचलित राजनीतिक समाजशास्त्र के प्रभाव में राजनीतिक भूगोल में निर्वाचन परिणामों के विश्लेषण का बोलबाला हो गया ।
परिणामस्वरूप राजनीतिक समाजशास्त्र के विद्यार्थियों की भांति राजनीतिक भूगोल के विद्यार्थी भी राजनीतिक इकाइयों को आगत-निर्गत व्यवस्था की मशीनी प्रक्रिया द्वारा संचालित इकाइयों के रूप में देखने लगे । अस्सी के दशक के प्रारम्भ में इस अवधारणा पर आधारित निर्वाचन भूगोल से मोह-भंग के पश्चात् विश्व आर्थिक व्यवस्था पर आधारित नए राजनीतिक भूगोल का प्रारंभ हुआ जिसके अन्तर्गत राजनीतिक भूगोल विश्व-व्यवस्था की प्रक्रिया और उसके भूमण्डलीय प्रभावो का त्रिस्तरीय अध्ययन बन गया ।
इन दोनों ही अवधारणाओं में राज्य का स्थानिक रूप दृष्टि से ओझल हो गया, अर्थात् राजनीतिक भूगोल भूगोलविहीन अध्ययन बन गया ।
परिणामस्वरूप:
(1) स्थान बोध (सेन्स ऑफ प्लेस)
(2) स्थानपरक राजनीतिक गतिविधियां,
(3) देश की प्रशासनिक व्यवस्था,
(4) राष्ट्रीय एकता की समस्या, और
(5) देश की नीतिनिर्धारण प्रक्रिया, उसके क्रियान्वयन का स्वरूप और उसके सामाजिक परिणाम तथा
(6) सामाजिक न्याय के प्रश्न राजनीतिक भूगोल के प्रमुख मुद्दे नहीं रहे ।
यही कारण था कि 1966 से 1975 के बीच इनमें से कुछ पक्षों के अध्ययन को दिशा देने के प्रयास मुख्य धारा के अंग नहीं बन सके । किसी राज्य का स्थानिक पक्ष वहां के निवासियों के सांस्कृतिक तथा राजनीतिक चिन्तन और उनके आत्मबोध का अभिन्न अंग है । उनकी पहचान देश की स्थानीय विशेषताओं से अनिवार्यत जुड़ी है (एग्न्यू 1987, रेयनाल्ड और नाइट 1989) ।
राजनीतिक भूगोल के अध्ययन में पिछले बीस वर्षो में स्थानिक परिदृष्टि के प्रति व्याप्त उदासीनता के कारण ही राजनीतिक भूगोल राज्यों और राजनीतिक जीवन के समाज वैज्ञानिक अध्ययन में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने में असफल रहा है ।
किसी भी क्षेत्र के राजनीतिक क्रिया कलाप वहां के स्थानीय मुद्दों से सम्बद्ध सामाजिक संघर्ष के परिणाम हैं । अत: उनके सही मूल्यांकन के लिए इस संघर्ष में लगे समूहों की चेतना में अन्तर्निहित स्थानीय बोध को ध्यान में रखना आवश्यक है ।
सामाजिक व्यवहार में स्थानबोध जन्य प्रभावों के सन्दर्भ में स्थितियों और समस्याओं का विश्लेषण ही भौगोलिक अध्ययन को विशिष्ट पहचान देता है । सामाजिक विज्ञान के अध्ययन में भूगोल की यही विशिष्ट भूमिका है । बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में अब सामाजिक भूगोल के अध्येता इस तथ्य के प्रति उत्तरोत्तर अधिक जागरूक हो गए हैं ।
मानव अथवा सामाजिक भूगोल के अध्ययन में स्थानिक परिदृष्टि का पुनर्जागरण तथा राजनीतिक भूगोल में राजनीति को स्थानजन्य अवचेतना पर आधारित प्रक्रिया के रूप में देखना एक बार फिर मानव भूगोल को सो वर्ष पुराने रैट्जेल और कलाय युगीन चिन्तन धारा से सीधे जोड़ देता है ।
ब्लाश ने भूगोल को स्थानों के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया था तथा रैटजेल के मतानुसार राज्य भूखण्ड विशेष और उसके निवासियों के बीच दीर्घकालिक समागम से निर्मित जीवन्त आत्मिक इकाई था । ये दोनों ही विद्वान मानव भूगोल के पारिस्थितिकीय अध्ययन के पक्षधर थे । समाज वैज्ञानिक अध्ययन में समकालीन स्थानिक परिदृष्टि आधुनिकता से उत्तरआधुनिकता की ओर उन्मुख विकास प्रक्रिया के परिणामस्वरूप आए मूल्यबोध परिवर्तन का प्रत्यक्ष परिणाम है ।
व्यावहारिक स्तर पर समाजशास्त्रीय अध्ययन में उत्तरआधुनिक परिदृष्टि का समावेश सत्तर के दशक में ही प्रारम्भ हुआ । उसके पूर्व प्रचलित आधुनिकतावादी वैज्ञानिक परिदृष्टि मूलतया एक विश्वव्यापी दूरत्वपरक परिदृष्टि थी जिसके अन्तर्गत विद्यार्थी पूरे विश्व को एक इकाई के रूप में रूपायित कर सामाजिक समस्याओ को विश्व भर में सर्वत्र समान रूप में घटित होने वाली घटनाओं के रूप में देखने ओर उनके बारे में सामान्य नियमों को प्रतिपादित करने का प्रयास करता था ।
आधुनिकतावादी परिदृष्टि अध्ययन में बृहत् आकार पर बल देती थी तथा साथ ही ऐतिहासिक विकासवाद की मार्क्सवादी मान्यता पर आधारित थी । इसके विपरीत उत्तर आधुनिकतावादी विचारधारा लघुता और सूक्ष्मता का पक्षधर है ।
अत: यह मूलतया स्थानिक परिदृष्टि हे जो छोटे-छोटे क्षेत्रों और संकुलों के अध्ययन, और अलग-अलग समूहों के सविस्तार विश्लेषण ओर अनुशीलन पर केन्द्रित है । 1980 के बाद से राजनीतिक भूगोल में विश्व-व्यवस्था परिदृष्टि के प्रवेश के पश्चात् आधुनिकतावादी साधारणीकरण की प्रवृत्ति की ओर प्रोत्साहन मिला क्योंकि इस परिदृष्टि की मूल-भूत मान्यता थी कि विश्व अर्थव्यवस्था ही आज जीवन को संचालित करने वाली अंतिम शक्ति है ।
इसके अनुसार व्यक्ति की मूल पहचान उसकी विश्व नागरिकता में ही निहित है । इस विचारधारा के अनुसार वर्तमान सन्दर्भ में राष्ट्रवादी राजनीतिक चिन्तन जीवन की समकालीन वास्तविकता को विद्रूपित करता हैं । इसके विपरीत यद्यपि उत्तर आधुनिकतावादी चिन्तन मनुष्य की तीन स्तरीय पहचान का पक्षधर है परन्तु इस चिन्तन धारा के अनुसार स्थान हमारी सामाजिक पहचान का मूलाधार है ।