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जर्मन भूराजनीतिक भूगोल का उदय और पराभव |
जेलेन का योगदान:
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रैटज़ेल द्वारा प्रतिपादित राजनीतिक भूगोल जर्मन संस्कृति वाले देशों में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ । रेटजेल के अनुवर्ती विद्वानों में स्वीडिश मूल के राजनीतिशास्त्री रुडाल्फ जेलेन (1864-1922) अग्रणी थे ।
वे गोटेबर्ग विश्वविद्यालय में शासन के आचार्य थे । जेलेन ने रेटजेल की जैविक राज्य सम्बन्धी संकल्पना को ओर आगे बढ़ाने का प्रयास किया । जेलेन के अनुसार राज्य मात्र जीवन्त इकाइयां ही नहीं हें, वे विवेकशील इकाइयां भी हैं ।
अत: राज्य अच्छे-बुरे, और अपने हित-अहित के बीच चयन करने में सक्षम हैं । जेलेन रैटज़ेल की इस धारणा से पूरी तरह सहमत थे कि राज्य मूलतया परस्पर प्रतिस्पर्धी प्राक्तिपुंज हैं तथा अन्तरराष्ट्रीय वर्चस्व के निरन्तर संघर्ष में क्षेत्र प्रसार उनकी स्वाभाविक प्रवृति है ।
रैटज़ेल की ही तरह जेलेन की भी मान्यता थी कि प्रत्येक राज्य का अन्तिम उद्देश्य अपने देश के भौगोलिक क्षेत्र को एक पूर्णतया समायोजित इकाई के रूप में स्थापित करना तथा रजसके चारों ओर स्थायी प्राकृतिक सीमाओं की प्राप्ति करना है ।
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जेलेन के मतानुसार राज्य के विकास ओर शक्ति संचयन की इस प्रक्रिया में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं था क्योंकि यह विकास प्रक्रिया मूलतया स्थूल शक्ति संघर्ष की प्रक्रिया हे जिसमें प्राक्तिशाली की शक्तिहीन पर विजय नैसर्गिक न्याय है । अर्थात् बड़े राज्यों द्वारा अपेक्षाकृत शक्तिहीन राज्यों पर आक्रमण करके उन्हें हड़प कर जाना सर्वथा न्यायसंगत कार्य माना गया ।
भौगोलिक क्षेत्रों का जीवन्त राष्ट्रीय इकाइयों के रूप में कायान्तरण की प्रक्रिया के अध्ययन में जेलेन की विशेष रुचि थी । उनके अनुसार किसी भी क्षेत्र में मानव निवास की प्रक्रिया ही उसे एक समायोजित स्थानीय इकाई का रूप देती है ।
इस समायोजन के परिणामस्वरूप देश के अन्दर अन्तरक्षेत्रीय संचार और समागम को बढ़ावा मिलता है । इस संचार और आदान-प्रदान की प्रक्रिया से नागरिकों में देश की समग्र क्षेत्रीय इकाई के प्रति आस्था भाव जागत होता हे तथा देश की जनसंख्या उत्तरोत्तर एक समग्र राष्ट्रीय इकाई में परिवर्तित हो जाती है । राष्ट्रीय चेतना मूलतया नागरिकों में भौगोलिक अन्तरबोध (जिओग्राफिकल इंस्टिंक्ट) की जागति का परिचालक है ।
राजनीतिक इकाइयों के अध्ययन में जेलेन कुछ अनुक्रमिक चरणों के अनुसरण के पक्षधर थे । ये हैं;
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(1) भूराजनीति (जिओपालिटीक) अर्थात् राज्य का भौगोलिक वर्णन;
(2) देश की जनसंख्या का विश्लेषण (डेमोपालिटीक);
(3) देश की अर्थव्यवस्था का विश्लेषण (ओकोपालिटीक),
(4) देश की सामाजिक संरचना का निरूपण (सोशिओपालिटीक), तथा
(5) देश की शासन व्यवस्था का विश्लेषण (क्रैटोपालिटीक) ।
जेलेन का विश्वास था कि सामुद्रिक शक्तियों का अन्तरराष्ट्रीय वर्चस्व शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा तथा विशाल क्षेत्र वाले स्थानिक राज्य उनका स्थान ले लेंगे और कालान्तर में वे समुद्री मार्गों का नियंत्रण भी प्राप्त कर लेंगे । इस आधार पर जेलेन का दृढ़ विश्वास था कि जर्मन साम्राज्य शीघ्र ही यूरोप, अफ्रीका और पश्चिमी एशिया में सबसे शक्तिशाली राज्य बन जाएगा ।
जर्मन भूराजनीतिक के विकास में हाउशोफर का योगदान |
1871 में प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी की अनेक जर्मन भाषी इकाइयों के परस्पर विलय से जर्मन साम्राज्य की स्थापना के साथ ही जर्मनी द्रुत गति से यूरोपीय महाद्वीप का सबसे बड़ा और प्रभावशाली राज्य बन गया ।
शीघ्र ही वह यूरोपीय महाद्वीप के स्तर पर सबसे बड़ी सामरिक और आर्थिक शक्ति बन गया । देश में अपेक्षाकृत बेहतर श्रम उपलब्धता और उन्नत तकनीकी विकास के कारण उसके औद्योगिक उत्पाद यूरोप के अन्य देशों (विशेषकर ब्रिटेन) के उत्पादों से गुणवत्ता में बराबर तथा मूल्य में सस्ते बनने लगे ।
अत: तत्कालीन मुक्त अन्तरराष्ट्रीय व्यापारे व्यवस्था के अंतर्गत अन्तरराष्ट्रीय बाजार में उसकी भागीदारी द्रुत गति से बढ़ने लगी । इस स्पर्धा से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के लिए संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई । उन्नीसवीं सदी के अन्तिम वर्षों में इस बात के स्पष्ट संकेत मिलने लगे थे कि जर्मनी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन के सामरिक और आर्थिक वर्चस्व को चुनौती देने की सक्रिय तैयारी में था तथा उसके नागरिक नई राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत जर्मनी के नेतृत्व में एक विश्वव्यापी साम्राज्य का स्वप्न देखने लगे थे । प्रथम विश्वयुद्ध इन्हीं बदली हुई परिस्थितियों का परिणाम था ।
युद्ध में जर्मनी के पराजय के पश्चात किए गए शान्ति समझौते की शर्तों के अनुसार जर्मन साम्राज्य का अधिकार क्षेत्र संकुचित कर दिया गया । भाषाई आधार पर विभाजित कर उसे अनेक छोटी-छोटी स्वतंत्र राजनीतिक इकाइयों में बांट दिया गया ।
इससे जर्मन अस्मिता और उसके राष्ट्रवादी आत्म गौरव को बहुत ठेस लगी । अत: युद्ध पश्चात देश के राजनेता और राष्ट्रवादी बौद्धिक वर्ग राष्ट्र के विलुप्त गौरव की वापसी के मार्ग की खोज में लग गए । इस संदर्भ में उनका ध्यान रैटज़ेल की राज्य सम्बन्धी जैविक परिकल्पना तथा जेलेन की भूराजनीतिक अवधारणा की ओर आकृष्ट हुआ ।
उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि इस मूलभूत सैद्धान्तिक मान्यता में कि राज्य स्वभाव से ही जीवन्त राष्ट्रीय इकाइयां हैं और विकास की प्रक्रिया में शक्ति संचयन और क्षेत्रीय विस्तार उनकी अन्तर्निहित प्रवृति है; तथा विशाल जनसंख्या तथा जनसंख्या की तुलना में सीमित भौगोलिक क्षेत्र वाले राज्यों द्वारा अपने पड़ोसी राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण सर्वथा न्यायसंगत प्रक्रिया है, राष्ट्र के खोए हुए गौरव की पुनर्प्राप्ति सम्बन्धी उनकी समस्या के समाधान का मार्ग निहित था ।
तत्कालीन यूरोप में जर्मनी सबसे सघन आबादी वाला देश था, साथ ही उसकी जनसंख्या दूसरे बड़े देश फ्रांस की तूलना में बहुत तेजी से बढ रही थी । देसी स्थिति में राज्य की जैविक परिकल्पना के अनुसार जर्मन राज्य का विभाजन तथा उस पर क्षेत्र प्रसार सम्बन्धी प्रतिबन्ध सैद्धान्तिक तौर पर अन्यायपूर्ण थे । इसी संदर्भ में उन्हें मैकिंडर की हृदय स्थल सम्बन्धी संकल्पना (1904) भी बहुत आकर्षक लगी क्योंकि उसकी इस संकल्पना में उनको जर्मनी के क्षेत्र विस्तार का मार्ग दिखाई पड़ा ।
मैकिंडर के अनुसार:
जो पूर्वी यूरोप पर नियंत्रण करेगा
वही हृदय स्थल पर राज्य करेगा;
जो हृदय स्थल पर नियंत्रण प्राप्त करेगा
उसे विश्वद्वीप पर नियंत्रण प्राप्त होगा;
जो विश्वद्वीप पर शासन करेगा वही
विश्व के राजनीतिक भाग्य का निर्णायक होगा ।
मैकिंडर ने यह भी लिखा था कि तत्कालीन विश्व राजनीति की स्थिति को देखते हुए विश्व साम्राज्य स्थापना की इस सम्भावना को वास्तविकता में परिवर्तित करने में जर्मनी ही सर्वाधिक सक्षम था । मैकिडर की इसी अवधारणा के प्रभाव में विश्वयुद्ध के उपरान्त हुए शान्ति समझौते में इस बात का भरपूर प्रयास किया गया था कि मध्य ओर पूर्वी यूरोप के राजनीतिक मानचित्र को ऐसा बना दिया जाए कि जर्मनी के लिए पूर्वी यूरोपीय क्षेत्र के माध्यम से हृदय स्थल में प्रवेश पाने की संभावना समाप्त हो जाए ।
परन्तु, स्वयं जर्मन देशभक्तों और उसके राष्ट्रवादी बौद्धिक समुदाय तथा देश के राजनेताओं को मेकिंडर के विचार अमृत वचन से प्रतीत हुए । देश की मुक्ति का मार्ग स्पष्ट हो गया था उस पर अग्रसर होने की तैयारी करना शेष था ।
रैटज़ेल, जेलेन और मेकिंडर की संकल्पनाओं के सम्मिलित आधार पर देश के गौरव की पुनर्स्थापना करने तथा नागरिकों में राष्ट्र की क्षेत्रीय विकास की आवश्यकताओं के प्रति सचेत भौगोलिक अन्तर्बोध जागत करने के उद्देश्य से 1924 में म्यूनिख नगर में भूराजनीति के अध्ययन के लिए एक उच्च स्तरीय संस्थान की स्थापना की गई ।
जर्मन सेना से सेवा निवृत्ति के पश्चात सैनिक भूगोल के विश्वविद्यालय स्तर के आचार्य जनरल हाउशोफर संस्थान के निर्देशक नियुक्त हुए । हाउशोफर के नेतृत्व में संस्थान ने एक शोध पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया । हाउशोफर स्वयं इसके मुख्य सम्पादक थे ।
पत्रिका की लोकप्रियता द्रुत गति से बढ़ती गई । जर्मनी के प्राय: सभी मूर्धन्य भूगोलविदों ने इसके लिए लेख लिखे । इन लेखों और वक्तव्यों के माध्यम से युद्ध में हुई पराजय के परिणामस्वरूप उत्पन्न राष्ट्रीय हताशा की समाप्ति और देश के नागरिकों में जर्मनी की क्षेत्र विस्तार सम्बन्धी आवश्यकताओं की न्यायसंगतता के प्रति जागरूकता विकसित करने में बहुत सहायता मिली ।
हाउशोफर, मैकिंडर की विश्व सामरिक परिदृष्टि से अत्यधिक प्रभावित था । उसके अनुसार अब तक प्रकाशित सभी सामरिक परिदृष्टियों में मैकिंडर की परिदृष्टि सर्वश्रेष्ठ थी । मैकिंडर की इस अवधारणा में हाउशोफर को पराजित जर्मनी के राष्ट्रोद्वार का मार्ग और देश की समस्याओं के समाधान की कुंजी दिखाई पड़ी ।
मेकिंडर के हृदय स्थल सम्बन्धी मानचित्र के एक संशोधित निरूपण के माध्यम से हाउशोफर ने यह दशाने का प्रयास किया कि यूरेशिया भूखण्ड के मध्य में उन्नत और प्राचीन संस्कृतियों वाला (जर्मनी समेत) एक विशाल क्षेत्र ब्रिटेन और उसकी सहयोगी सामुद्रिक शक्तियों द्वारा खड़ी की गई घेराबन्दी का शिकार हो रहा था ।
उसके द्वारा निरूपित इस क्षेत्र में दक्षिणी-पश्चिमी यूरोप, दक्षिणी-पश्चिमी दक्षिणी, दक्षिणी-पूर्वी और पूर्वी एशिया के देश शामिल थे । उसकी योजना के अनुसार इस क्षेत्र के सभी देशों को एक होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समाप्त करने के प्रयास में लग जाना चाहिए ।
जर्मन भूराजनीति के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार थे:
(1) मध्य एशियाई हृदय स्थलीय शक्तियों को जर्मनी के साथ मैत्री सूत्र में बांध कर उन्हें ब्रिटेन के प्रभाव क्षेत्र के बाहर रखना ।
(2) मध्य ओर पश्चिमी यूरोप तथा अफ्रीका में जर्मनी का राजनीतिक प्रभाव बढ़ाना ।
(3) और सर्वप्रमुख, ब्रिटेन की सामुद्रिक शक्ति को क्षीण करना ।
इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु भूराजनीतिक विचारकों ने रूस, चीन, जापान और भारत को मिलाकर ब्रिटेन विरोधी महासंघ बनाने का सुझाव दिया । इन उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रारंभ रूस के साथ आर्थिक और सामरिक सहयोग की सन्धि से हुई ।
हाउशोफर और उसके समर्थक रूस पर मैत्री द्वारा प्रभाव बढ़ाने के पक्षधर थे, क्योंकि इतने विशाल क्षेत्र वाला देश सीधे आक्रमण की स्थिति में सरलता से योजनाबद्ध तरीके से पीछे हटते हुए शत्रु को देश के अन्दर बुलाकर उसकी घेराबन्दी करके पराजित करने में सक्षम था ।
नेपोलियन के आक्रमण के समय रूस पहले ऐसा कर चुका था । यही कारण था कि भूराजनीतिज्ञ 1941 में जर्मनी द्वारा रूस पर किए गए आक्रमण के खिलाफ थे । द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में हाउशोफर और उसके संस्थान का नाजी शासकों की नीति निर्धारण प्रक्रिया से बहुत निकट का सम्बन्ध था ।
युद्ध में जर्मनी के पराजय और विध्वंस के साथ ही भूराजनीतिक विचारधारा का अवसान हो गया । भूराजनीति शब्द के साथ जुडे इस इतिहास के कारण युद्धोपरान्त काल में राजनीतिक भूगोल की शब्दावली से इस शब्द को बाहर कर दिया गया ।
अस्सी के दशक में भूराजनीति शब्द पुन: चर्चा में आ गया परन्तु अब इसका प्रयोग क्षेत्रीय परिदृष्टि से विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक राजनीतिक सम्भावनाओं के आकलन के सन्दर्भ में किया जाता है ।