मानव-समाज उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहता है । अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में मनुष्य अथक परिश्रम करता है, ताकि समाज में सम्मान एवं प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके ।
परन्तु जीवन के कर्म-क्षेत्र की भाग-दौड़ के चलते मनुष्य को मनोरंजन की भी आवश्यकता होती है ताकि वह कुछ समय के लिए मानसिक शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव करने के उपरान्त पुन: उत्साह से अपने कार्य-क्षेत्र में परिश्रम कर सके ।
मनुष्य मनोरंजन के लिए सिनेमा (चल-चित्र) एक सस्ता, सुलभ साधन है । मनोरंजन के अन्य साधनों की तुलना में सिनेमा का में अधिक लोकप्रिय भी है । यही कारण है कि सिनेमा का समाज पर सीधा प्रभाव पड़ता है । सिनेमा में दिखाए गए पात्रों, उनकी जीवनचर्या और घटनाओं से आज का समाज सर्वाधिक प्रभावित है ।
भारत में सिनेमा के आरम्भिक काल में धार्मिक कथा-चित्रों का अधिक निर्माण किया जाता था । भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को बचाए रखने के साथ-साथ धार्मिक चल-चित्रों में समाज के लिए उपयोगी संदेश भी होते थे ।
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सामाजिक चल-चित्रों में भी समाज को दिशा देने का प्रयत्न किया जाता था । बाद में गीत-संगीत के आगमन से सिनेमा मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम बन गया था, परन्तु मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक मर्यादाओं का भी सिनेमा में ध्यान रखा जाता था ।
सिनेमा की कथाओं में बाल-विवाह, दहेज आदि सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया जाता था और रोचक घटनाओं के द्वारा समाज को आपसी भाईचारे का, जात-पांत के भेद-भाव को मिटाने का संदेश दिया जाता था । वस्तुत: सिनेमा के संदेश को भारतीय समाज शीघ्र ग्रहण कर लेता है ।
आरम्भ से ही सिनेमा का भारतीय समाज पर प्रभाव रहा है । सिनेमा के नायक-नायिकाओं के रहन-सहन को भारतीय समाज तुरन्त अपना लेता है । विशेषत: युवा-पीढ़ी पर सिनेमा का अधिक प्रभाव पड़ता है । सिनेमा के गीत-संगीत के स्वर्णिम दौर में भारतीय युवा-पीढ़ी नगर, गाँव में, गली-मुहल्लों में सिनेमा के गीत गाते देखी जाती थी ।
हिंसा-प्रधान सिनेमा ने भी भारतीय समाज को प्रभावित किया है । हिंसा के मार्ग पर चलकर जीवन में सफलता प्राप्त करने वाले सिनेमा-नायक को देखकर भारतीय नौजवान स्पष्टत: अधिक आक्रामक हुआ है । अनेक अपराधियों ने पुलिस की गिरफ्त में आने के उपरान्त स्वीकार किया कि उन्हें इस अपराध की प्रेरणा सिनेमा से मिली ।
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वर्तमान सिनेमा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को भूल गया है । अब सिनेमा में समाज को दिशा-निर्देश देने के लिए आदर्श चरित्र प्रस्तुत नहीं किए जाते । भारतीय सिनेमा अब स्वस्थ मनोरंजन का साधन नहीं रह गया है ।
उस पर पश्चिमी संस्कृति हावी हो रही है, जिसकी आड़ में नग्नता, अश्लीलता का प्रदर्शन किया जा रहा है । इसका दुष्प्रभाव भी सीधा समाज पर पड़ रहा है । पहले की तुलना में आज के भारतीय समाज का स्वरूप ही बदल गया है ।
विशेषत: युवा-पीढ़ी की जीवनचर्या, उसके विचारों में अकल्पनीय परिवर्तन देखने को मिल रहा है और यह सिनेमा की ही देन है । वास्वव में सिनेमा ने अब बड़े उद्योग का रूप ले लिया है । अब सिनेमा स्वस्थ मनोरंजन अथवा समाज का पथ-प्रदर्शन करने का माध्यम नहीं रह गया है, बल्कि व्यापार के रूप में केवल अपनी उन्नति के प्रति प्रयत्नशील है ।
अपनी उन्नति के लिए सिनेमा समाज की चिन्ता से मुक्त होकर दर्शकों को हिंसा, नग्नता, अश्लीलता, कुविचार बेच रहा है । आज सिनेमा में अपराधियों को राजसी ठाट-बाट का जीवन व्यतीत करते दिखाया जाता है । एक प्रेमी को निर्दयता से अपनी प्रेमिका की हत्या करते हुए दिखाया जाता है ।
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इतना ही नहीं, नौजवानों को नशीले पदार्थो का सेवन करते हुए तथा अपराध एवं व्यभिचार में लिप्त दिखाया जाता है । आज समाज को ऐसे सिनेमा के बहिष्कार की आवश्यकता है, ताकि वर्तमान एवं भावी पीढ़ी को घातक दुष्प्रभावों से बचाया जा सके ।