प्रत्येक नर्ड पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी के प्रति कुछ पूर्वाग्रह लिए रहती जबकि प्रत्येक पिछली पीढ़ी अपनी आगामी पीढियों के द्वारा उठाए गए कदमों को नकार कर तनाव और कुंठा को अपने जीवन में शामिल कर लेती हैं । पुरातन और नूतन के बीच चलने वाला यह सतत संघर्ष पीढ़ी अंतराल को जन्म देता है ।
हालांकि विगत कुछ वर्षो से इसको और ज्यादा विश्लेषित स्पष्ट और समझने की कोशिशें हो रही हैं और इसी प्रक्रिया में पीढ़ी-अंतराल के संदर्भ में नए-नए विचार मान्यताएं और अवधारणाए आ रही हैं । औसतम 25 से 30 वर्षों के दौरान एक पीढ़ी का स्थान दूसरी पीढ़ी ले लेती है और इसी दौरान मनोवृतियों में आए बदलावों को भी पीढ़ी अंतराल की श्रेणी में रखा जाता है ।
पीढ़ी अंतराल अपरिहार्य है, लेकिन इसके दो पक्षों में कालानुक्रम और मानोवैज्ञानिक कारण महत्त्वपूर्ण हैं । संसार लगातार विकसोन्मुख बनकर प्रौढ़ावस्था का स्थान किशोरावस्था को दे देता है । यह जीवन का एक अविभाज्य अंग है जिसको झुठलाया नहीं जा सकता है ।
प्रत्येक नई पीढ़ी को विरासत में कुछ मूल्य और आदर्श मिलते हैं, किन्तु अपनी मनोस्थिति के अनुरूप, किशोर पीढ़ी कई पदचिन्हों का अनुसरण न करके अपने रस्तों का स्वयं ही निर्माण करना चाहती है । इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष तब सामने आता है, जब उपभोक्तावादी संस्कृति अपने प्रचारों और उत्पादों के माध्यम से अपने उपभोक्ताओं को रिझाने का प्रयास करती है ।
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तब ताजगी और स्फूर्ति से भरे युवागण इनकी और आकर्षित हो जाते हैं, जबकि अपने जीवन की सांध्यबेला में जी रहे वृद्ध इसके प्रति उदासीन भाव रखकर, इहलोक और परलोक जैसे प्रश्नों पर चिंतनशील हो जाते हैं । जोकि पीढ़ी अंतराल का एक प्रमुख कारण बनता है । पीढ़ी अंतराल को समाज के प्रत्येक क्षेत्र में, प्रत्येक पहलू में देखा जा सकता है, किन्तु इसकी नीव समाज की इकाई परिवार से ही पदनी शुरू हो जाति है ।
जिससे पारिवारिक कलह और तनाव का जन्म होता है । लेकिन सहज मानवीय-अभिव्यक्तियों को पीढ़ी-अंतराल की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । किसी अबोध बालक का किसी अपरिचित प्रौढ़ो की गोद में जाने से मना कर देगा पीढ़ी अंतराल नहीं कहा जा सकता ।
लेकिन किसी खास वर्ग का दूसरे वर्ग पर पड़ने वाला दबाव बनाने वाले वर्ग से विमुख कर अपने समकालीन वर्ग के प्रति आकर्षित करता है और यहीं से पीढ़ी अंतराल की नींव पड़नी शुरू हो जाती है । जीवन के आरंभिक समय में पीढ़ी अंतराल कम रहता है, किन्तु जैसे-जैसे बाल्यावस्था, किशोरावस्था और प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करना शुरू कर देती है ।
वैसे-वैसे पीढ़ी-अंतराल बढ़ने लगता है और अपनी पराकाष्ठा में प्रवेश कर जाता है । समाज में माता-पिता प्रतिबंधों और अनुशासन के प्रतीक माने जाते हैं । यह कुछ सीमा तक तो उचित माना जा सकता है किन्तु आवश्यकता से अधिक अप्रासंगिक प्रतिबंध और गैर-तार्किक अनुशासन सामाजिक प्राणी के भीतर साहस और अवज्ञा की सहज भावनाओं का निर्माण कर देती हैं क्योंकि वह भी बिना संघर्ष के अपनी स्वीकृति चाहता है ।
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साधारणत: उम्र के बढ़ने के साथ-साथ प्रतिरोध और संघर्ष की भावना क्षीण पड़ती चली जाती है और मनुष्य का उपासक बन जाता । अत: जीवन में नई स्फूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि नूतन पुरातन का स्थान ले ।
किन्तु यह आवश्यक नहीं कि वैज्ञानिक तर्क के आधार पर अप्रासंगिक हो चुकी बातों को नई पीढी भी अपनाए । आदर्श रूप से पुरातन और नूतन की आवश्यक और सर्वोत्तम चीजों को मानव जाति कै विकास के लिए परस्पर सम्मिलित करने की आवश्यकता है ।