आदिकवि वाल्मीकि । Biography of Valmiki in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. उनका जीवन व कार्य ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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वाल्मीकि का जीवन डाकू से महात्मा बन जाने कि एक ऐसी प्रेरणादायक महान कथा से संबन्धित है, जो सन्मार्ग से भटके हुए पतितों और दुष्टों को एक नया जीवन प्रदान करता है । सामान्य मनुष्य से सन्त-महात्मा के बाद रामायण जैसे पवित्र महाकाव्य के रचयिता बनने वाले वाल्मीकि ही थे ।
2. उनका जीवन व कार्य:
वाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन में रत्नाकर नाम से प्रसिद्ध एक ऐसे दुर्दान्त डाकू थे, जो जंगल की राह से गुजरने वाले राहगीरों को बड़ी ही निर्दयता से लूटा करते थे । लूटे जाने वाले व्यक्ति की विवशता तथा उसके रोने-गिड़गिड़ाने पर उन्हें तनिक भी दया नहीं आती थी । लूट की कमाई से अपने परिवार का पालन-पोषण करने वाले वाल्मीकि इसी को अपने जीवन का सत्य समझा बैठे थे ।
एक बार की घटना है: देवर्षि नारद उस क्षेत्र से नारायण! नारायण! का जाप करते हुए कहीं जा रहे थे । यह वही क्षेत्र था, जहां वाल्मीकि का आतंक राज कायम था । देवर्षि नारद को एक सामान्य व्यक्ति की तरह वाल्मीकि ने डराया-धमकाया कि उनके पास जो कुछ भी है, वह चुपचाप उसे सौंप दें ।
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देवर्षि नारद हंसते हुए बोले: ”मेरे पास क्या है, जो तू लूट लेगा । प्रभु नाम के सिवा मेरे जीवन की कोई सार्थकता नहीं । ये जो तुम लूटकर धन आदि एकत्र कर जो पाप कर रहे हो किसलिए ?” वाल्मीकि ने उत्तर दिया: ”अपने परिवार के लिए ।” नारदजी ने पूछा: ”इस पाप में तुम्हारे बेटे-बहू पत्नी आदि पारिवारिक सदस्यों की कितनी भागीदारी है ।”
वाल्मीकि ने सगर्व उत्तर दिया था: ”मेरे इस पाप में सबकी बराबरी की हिस्सेदारी है ।” नारदजी ने कहा: ”हे भ्रगित मानव ! तुम अभी आपने घर जाओ और पाप की हिस्सेदारी के बारे में पूछकर आओ ।” वाल्मीकि ने देवर्षि नारद को एक पेड से बांध दिया और घर जाकर सभी से पाप की हिस्सेदारी विषयक प्रश्न दोहराया ।
सभी से उन्हे यही उत्तर मिला कि: “सभी उसके धन में तो हिस्सेदारी कर सकते हैं, किन्तु पाप में हिस्सेदारी स्वयं उसके अकेले की ही है ।” इस सत्या का बोध होते ही वाल्मीकि ने नारदजी से इसकी मुक्ति का उपाय पूछा । देवर्षि नारद ने उन्हें ”रामनाम” का जाप करने का सफल मन्त्र दिया ।
बस फिर क्या था, भुखे-प्यासे रहकर रत्नाकर ने राम की बजाय ”मरा-मरा” का जाप करना प्रारम्भ किया; क्योंकि उनके कानों को लूट के समय यही शब्द सुनने की आदत थी । वाल्मीकि वर्षो सर्दी, गरमी और वर्षा की परवा किये बिना तपस्या करते रहे । यहां तक कि उनके शरीर पर दीमकों ने अपना घर बना लिया था ।
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उनका शरीर दीमकों की बांबी (बाल्मीक) से ढक गया । तब वहां से गुजर रहे ब्रह्माजी ने तपस्वी के वेश में उस पर कमण्डल से जल छिड़का । वाल्मीकि अब डाकू से सन्त बन गये थे । तपस्वी का-सा जीवन बिताते-बिताते एक बार वाल्मीकि ने भागीरथ गंगा के जल में स्नान करने के बाद एक पेड पर क्रौंच पक्षी के जोड़े को प्रेमालाप करते देखा ।
तभी एक व्याप्त ने उन पर तीर चला दिया । एक साथी के मरते ही दूसरा साथी कौंच कराण विलाप करने लगा । वाल्मीकि ने इस पीड़ा से व्यथित होकर शिकारी को “सर्वस्व सत्यानाश हो” का श्राप दे डाला । इसके साथ ही उनके मुख से संस्कृत का मां ! निषाद से प्रारम्भ होकर एक श्लोक फूट पड़ा और वहीं से फूट पड़ी काव्य लेखन की धारा ।
अपनी अन्तर्दृष्टि और कल्पना से मर्यादा पुरुषोत्तम राम के सम्पूर्ण जीवन पर आधारित एक ऐसे महाकाव्य की रचना कर डाली । “रामायण” के नाम से विख्यात इस महाकाव्य को आज भी बड़ी श्रद्धा से घरों में पढ़ा जाता है ।
त्रेतायुग में जब राम ने सीताजी को गर्भावस्था में लोकनिन्दा के याय से वन छोड़ दिया था, तब इन्हीं वाल्मीकि मुनि के आश्रम में अपने पुत्रों लव-कुश को न केवल सीताजी ने जन्म दिया, बल्कि उनकी शिक्षा-दीक्षा में वाल्मीकिजी की ही प्रेरणा ली । क्षत्रिय राजकुमारों के रूप में लव-कुश ने उत्तम सरकार भी उन्हीं से पाये । कालान्तर में भगवान् राम लक्ष्मण सहित इस आश्रम में भी आये थे ।
3. उपसंहार:
आदिकवि वाल्मीकि भगवान् राम के परमभक्त होने के साथ-साथ श्रेष्ठ मानवीय गुणों से युक्त सन्त भी थे । दुष्ट से सज्जनता की ओर हृदय परिवर्तन होने के चमत्कार ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी । कानपुर के निकट बिठूर गांव में आज भी ऋषि वाल्मीकि की तपोभूमि के चिन्ह मिलते हैं ।
आश्रम की इस पवित्र भूमि में प्रवेश करते ही कहा जाता है कि तत्कालीन समय में हिंसक प्राणी भी अपने मूल स्वभाव को भूलकर प्रेमभाव से रहते थे । इसी पवित्रता की अनुभूति आज भी होती है । “रामचरितमानस” जैसे श्रेष्ठ, पवित्र रामकथा लेखन की प्रेरणा तुलसीदासजी ने वाल्मीकि रामायण से ही ली थी ।