भवानीप्रसाद मिश्र । Biography of Bhawani Prasad Mishra in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म ।
3. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
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भवानीप्रसाद मिश्रजी हिन्दी के ऐसे कवि रहे हैं, जो अपनी सादगी, सहजता और ताजगी के कारण जाने जाते हैं । उनकी कविताओं में ऐसा प्रवाह है, जो मानव के अन्तर्जगत को छूता चलता है । ऐसा कि मन और मस्तिष्क दोनों ही झकझोर उठे । आदर्शवादी एवं यथार्थवादी प्रवृत्तियों का अनूठा संगम है उनकी रचनाएं ।
अभिव्यक्ति में सादगी के साथ- साथ भावों को बड़ी ही शालीनता के साथ अपने पैनेपन के साथ उद्घाटित करती हैं । जैसे कि कैप्सूल में लिपटी हुई कोई कड़वी दवा ! उनकी रचनाओं में एक तरफ गांधीवादी दर्शन है, तो दूसरी ओर जीवन के सुरूप एवं कुरूप रूपों में मानवीय पक्ष की व्यापक समस्याओं को देखना और उससे मुक्ति पाने का मार्ग ढूंढना ।
वे लिखते हैं:
”जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख ! और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख ।” यही साहित्यिक आदर्श होना चाहिए । इसी आदर्श के वे अनुगामी हैं ।
2. जीवन परिचय एवं रचनाकर्म:
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कवि भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म 23 मार्च 1913 को होशंगाबाद (मध्य) के तिगरिया गांव में हुआ था । उन्होंने बाल्यावस्था से लेखन कार्य से नाता जोड़ लिया था । मिडिल स्कूल में थे, तो वे ‘कर्मवीर’ और ‘प्रभा’ पत्रिका के अच्छे पाठक थे । किशोरावस्था में पहुंचने पर उन्होंने यह पाया कि भारत पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ मुक्ति के लिए कराह रहा है ।
असहयोग आन्दोलन जोरों पर था । ऐसे में वे भला स्वतन्त्रता आन्दोलन से कैसे बाहर रह सकते थे ? सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ से ऐसे प्रेरित हुए कि उन्हें जेलयात्रा तक करनी पड़ी । जेल से बाहर आने पर वे वर्धा में शिक्षक हो गये ।
वहां से राष्ट्रभाषा प्रचार का कार्य करने लगे । राष्ट्रभाषा प्रचार सभा में कार्य करते हुए ”कल्पना” और ”सम्पूर्ण वाडमय का सम्पादन करने के साथ-साथ रचनात्मक कार्य भी चलता रहा । भवानीप्रसाद मिश्र ने अपनी युगीन संवेदनाओं को जितनी सहजता के साथ लिखा है, उन रचनाओं में प्रमुख हैं: “गीत फरोश”, ”अंधेरी कविताएं”, ”गांधी पंचशती”, “बुनी हुई रस्सी”, ”खुशबू के शिलालेख”, “व्यक्तिगत अन्तर्मन”, “अनाम तुम आते हों”, “परिवर्तनजीये”, ”त्रिकाल सन्ध्या”, ”फसलें और फूल”, ”सम्प्रति” आदि ।
मिश्रजी ने अपनी कविताओं में प्राकृतिक सौन्दर्य के अनुपम चित्र भी खींचे हैं, जहां प्रकृति के विविध रंग हैं, उपादान हैं. प्रकृति का मानवीकरण भी है:
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आंख उठाओ / देखो नीला आकाश है / हल्के लाल बादल ।
चांद गहरा पीला है / अच्छी शाम है / हवा रुकी हुई है /
पंछी गा रहे हैं / मगर इन सबका क्या होगा /
मुझे चेटियार साहब बुला रहे है ।
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झाडू ऊंचे और नीचे चुप खड़े हैं, आंखें मीचे ।
घास चुप है, कांस चुप है, मूक-शाल पलाश चुप है ।
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समकालीन सभ्यता पर कवि की सहज भाषा कितनी प्रभावशाली बन पड़ी है:
मैं असभ्य हूं; क्योंकि खुले-नंगे पांवों चलता हूं ।
मैं असभ्य हूं; क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूं ।
मैं असभ्य हूं; क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूं ।
मैं असभ्य हूं; क्योंकि ढोल पर बहुत जोर गाता हूं ।
यही भाषा आग भी उगलती है ।
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आप सभ्य है; क्योंकि जोर से पढ़ पाते हैं पोथी ।
आप सभ्य है; क्योंकि जबड़े खून से सने हैं ।
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3. उपसंहार:
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि भवानीप्रसाद मिश्र अधुनातन काव्यधारा तथा प्रयोगवाद के सशक्त कवि रहे हैं । उनकी रचनाओं में माटी की सहज गन्ध है । उनकी मृत्यु 20 फरवरी सन् 1985 को हुई ।