ईद-उल-अजहा (मुहर्रम) । “Muharram” in Hindi Language!
1. प्रस्तावना ।
2. क्यों मनाया जाता है?
3. कैसे मनाया जाता है?
ADVERTISEMENTS:
4. महत्त्व ।
5. उपसंहार ।
1. प्रस्तावना:
ईद-उल-अजहा मुसल-मानों का एक पवित्र त्योहार है । इसे बलिदान या कुरबानी का पर्व भी कहा जाता है । इस्लामिक कैलेण्डर के हिसाब से ईद-उल-अजहा हर साल जिल-हिज्जाह माह की दसवीं तिथि को मनाया जाता है ।
यह अल्लाह को मानने वालों और उनके प्रति कुरबानी का भाव जगाने और बन्दों को उनकी याद दिलाने के लिए आता है । इस पर्व को ईद-उल-कबीर, ईद-उल-कुरबा भी कहा जाता है; क्योंकि इस दिन को मुस्लिम समाज मुहम्मद साहब की कुरबानी को याद करने के लिए मनाता है ।
ADVERTISEMENTS:
यहां कुरबानी का मतलब अल्लाह की बताई गयी राह पर चलकर अपनी नेकनामी साबित करना है । इस कुरबानी में बहुत कुछ खोना पड़ता है । कुरबानी का असली मकसद अल्लाह ने बताया है । अल्लाह कहते हैं कि जिसने मेरी बतायी राह पर चलकर अपनी बुराइयों को नहीं छोड़ा, तो फिर उसने कुछ नहीं छोड़ा है ।
फिर आप चाहे लाख रोजे रखें या कुरबानी करें । कुरबानी करना’ अर्थात् अल्लाह से जुड़ना, अल्लाह के हर हुक्म की तामील करना । अजीज से अजीज चीज अल्लाह की राह में न्योछावर करना । कुरबानी के बदले में जो मिलता है, वह दुनिया की किसी भी बेशकीमती चीज से बेशकीमती है ।
2. क्यों मनाया जाता है ?
मुहर्रम या ईद-उल-अजहा क्यों मनाया जाता है ? इस त्योहार के पीछे प्रमुख धार्मिक कारण यह है कि हजरत मोहम्मद साहब करबला के मैदान में अपने विरोधियों के साथ संघर्ष कर रहे थे । हजरत मोहम्मद साहब मुसलमान धर्म के प्रवर्तक भी माने जाते हैं । ये हिरा की गुफा में अल्लाह की प्रार्थना किया करते थे ।
उन्हें अल्लाह से धर्म-प्रचार का आदेश मिला हुआ था । मक्का में उन्होंने यह सन्देश वहां की जनता को दिया । उस सन्देश को सुनकर उनके धर्म के अनुयायियों की संख्या बढ़ती ही चली गयी । इससे कुरैशी के लोग उनसे ईर्ष्या करने लगे । समय के साथ उनका विरोध इतना अधिक बढ़ गया कि मोहम्मद साहब को मदीना की ओर प्रस्थान करना पड़ा ।
ADVERTISEMENTS:
मक्का से मदीना तक की यात्रा वाली यह घटना हिजरत 20 जून, 622 को हुई । उनके दो पुत्र व चार पुत्रियां थीं । विरोधियों से संघर्ष करते हुए उनके सभी बच्चे मारे गये । उस रेगिस्तान की भरी गरमी में अन्तिम लड़ाई के समय उनका एक बेटा तथा बेटी फातिमा बची थी । अपने विरोधियों से भूखे-प्यासे पानी मांगने पर जब उन्हें पानी नहीं दिया गया, तो उनकी बेटी फातिमा वहीं शहीद हो गयी ।
अपने बेटे की कुरबानी के समय मोहम्मद साहब ने उससे कहा: “ऐ मेरे बच्चे ! मैं ख्वाब देख रहा हूं और तुम्हें जिबह कर रहा हूं । सोचो ! तुम्हारी क्या राय है ?” बच्चे ने कहा: “ऐ बाबा ! जो भी हुक्म हो रहा है, उस पर तामील कीजिये । अल्लाह ने चाहा, तो मुझे सब्र करने वालों में ही पाइयेगा ।”
बाप ने बेटे को माथे के बल लिटाया । ऐसी परीक्षा अल्लाह ने पैगम्बर मुहम्मद साहब इब्राहीम की ली थी । इब्राहीम ने अपने बच्चे को जिबह करने के लिए छुरी जलाई थी । धर्म के नाम पर अपने बच्चे को जिबह करने वाले मुहम्मद इब्राहीम ने देखा, एक चमत्कार हो गया । वहां एक बकरा था, जिस पर छुरी चल गयी । उस समय आकाशवाणी हुई: ”तुम मेरी परीक्षा में सफल हो गये ।”
तब से उस कुरबानी की याद करके मुस्लिम समाज ”बकरा ईद” मनाता है । इस दिन बकरा या फिर किसी और पशु की बलि देकर उस मांस को प्रसाद के रूप में बांटने या खाने की परम्परा है । हजरत इब्राहीम की कुरबानी यहां तक सीमित नहीं थी । उन्होंने तथा उनके वंश ने अल्लाह की राह पर चलतै हुए कई कुरबानियां दी । उनका पूरा जीवन दूसरों के लिए कुरबानी देने में ही बीता ।
हजरत मुहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन ने करबला के मैदान में शहादत पायी । महज 72 साथियों के साथ करबला की जंग में वे लड़ते रहे, लेकिन जालिमों से समझौता कतई नहीं किया । छह मास का मासूम असगर, हजरत अब्बास और हजरत कासिम आदि न जाने कितने जानिशां इस्लाम के लिए कुरवान हुए । इस तरह अल्लाह का घर, यानी ‘काबा’ का निर्माण किया । ईद-उल-उजहा के पहले ”हज” के लिए जाना अल्लाह की पुकार में हाजिरी देना है ।
हज का अर्थ हैं-अल्लाह के दर्शन का जियारत । हजरत इब्राहीम ने अल्लाह के कहने पर कि-वे काबा जायें, अल्लाह की इबादत करें, कहा: ‘हाजिर हूं अल्लाह तेरी खिदमत में हाजिर हूं । कोई नहीं माबूद तेरे सिवा लगता है । मानो जायरीन पूरी दुनिया को भुला बैठा हूं ।’ हर मुसलमान का फर्ज है कि वह एक बार हज जरूर करे । इस तरह मुहर्रम मनाये जाने के पीछे धार्मिक व ऐतिहासिक कारण है ।
3. कैसे मनाया जाता है?
मुहर्रम के दिन शिया तथा सुन्नी दोनों ही मातम मनाते हैं । इस दिन रोना-धोना, छाती पीटना, छुरियों और जंजीरों से छाती-पीठ को मार-मारकर घायल करना, हुसैन का स्मरण करना । एक प्रकार से उनके प्यासे होने, निर्दयी हत्या का स्मरण किया जाता है ।
यह स्मरण इतनी अधिक व्याकुलता एवं भाव-विह्वलता की स्थिति को जन्म देता है कि सुनने वाले ‘या हुसैन हम न हुए’ जैसे पश्चाताप एवं दुःख भरे वाक्यों से रोते-पीटते हैं । खुद को मुहर्रम मनाने की प्रक्रिया के प्रतीकस्वरूप विशेष आकार-प्रकार के ताजिये निकाले जाते हैं, जिसके पीछे बाल, बच्चे, बूढ़ों का जुलूस निकाला जाता है ।
वे उसके पीछे-पीछे रोते-पीटते, छाती पीटते, मर्सिये गाते यही मार्मिक पुकार लगाते हैं: ”या हुसैन हम न हुए ।” कुछ लोग तो अपने नंगे बदन पर लोहे की जंजीरों में छोटी-छोटी छुरियां बांधकर शरीर पर मारते हैं, जिससे उनके शरीर से रक्त भी टपकता है । यह दृश्य बड़ा ही कारुणिक एवं मार्मिक होता है ।
जुलूस के आगे जीन कसा हुआ घोड़ा चलता है, जिस पर रक्तरंजित चादर डाली जाती है । यह घोड़ा हुसैन साहब का प्रतीक है । रक्तरंजित चादर बलिदान का प्रतीकस्वरूप है । मुहर्रम का यह जुलूस गलियों और बाजारों से गुजरता हुआ अन्त में प्रतीकात्मक स्थल करबला पहुंचाया जाता है । वहां अन्तिम फातिहा पढ़कर मर्सिये गाकर उसे दफना दिया जाता है ।
4. महत्त्व:
इस्लाम धर्म का यह पवित्र त्योहार कुरबानी के महत्त्व को दर्शाता है । इस्लाम धर्म की बुनियाद कुरान, मजीद, हदीस, सुन्नत {इज्माअ एकत्रित होना}, कयास, तुलनात्मक परिणाम पर टिकी है । ये चार शरीअतें हैं, जो इस्लाम के पहले आदर्श हैं । दूसरे आदर्श एवं कर्तव्य में:
1. कलाम पढ़ना । 2. नमाज पढ़ना । 3. रोजा रखना । 4. जकात (दान देना) । 5. हज करने आते हैं ।
5. उपसंहार:
यह पर्व इब्राहीम के ऐतिहासिक बलिदान और इस बात की याद दिलाता है कि सच्ची खुशी सच्चे दिल से समर्पण, त्याग एवं दान में है । अल्लाह की इबादत का यह पर्व हमें सन्देश देता है कि मानव सभी नेमतों का उचित व निःस्वार्थ दान करे ।
केवल जानवरों की कुरबानी नहीं करना है । खुदा की बतायी हुई राह पर कुरबान होना है । रूह से यही आवाज निकले-अल्लाह ! अल्लाह ! कुरबानी कभी भी जाया नहीं जाती है । अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु की कुरबानी का पर्व है: ईद-उल-जुहा ।