नृजातीय और धार्मिक आंदोलन | “Ethnic and Religious Movements” in Hindi Language!
नृजातीय और धार्मिक आंदोलनों की भूमिका-नृजातीय और धार्मिक आंदोलनों को राष्ट्रवाद की गति सिद्धांत से अलग नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह सार्वभौम सकल्पना है । नृजातीय और धार्मिक आंदोलन सामान्यतया राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर ही आधारित होते हैं । नृजातीय और धार्मिक आंदोलनों के सिद्धांत किसी भी मानव समुदाय की जातिंगत परिकल्पना के अग माने जाते हैं ।
ये संघर्ष या आंदोलन किसी भी क्षेत्र विशेष में बहुसंख्यक वर्ग के द्वारा राजनीतिक एवं वैधानिक जीवन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए प्रारभ किए जाते हैं । इस संघर्ष के अंतर्गत अपनी माँग को न्यायोचित करार देने के लिए कोई भी जाति इसे धर्म का जामा पहना देती है ।
हंटिंग्टन ने अपनी पुस्तक ‘दि फ्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस एंड दि मेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर’ में इस बात को स्पष्ट किया है कि सभी प्रकार के राष्ट्रीय आंदोलनों में नृजातीयता और धर्म की भूमिका व्यापक होती है, क्योंकि कोई भी जाति अपने आंदोलन में बिना धर्म को समेटे नहीं रह सकती ।
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उन्होंने इस विचार को सबसे पहले 1993 में फॉरेन अफेयर्स पत्रिका के अंतर्गत एक निबंध के द्वारा स्पष्ट किया था । इस निबंध को बाद में पूर्ण संकलित रूप में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया । हंटिंग्टन का मानना है कि संपूर्ण विश्व धार्मिक भावना के कारण सांस्कृतिक रूप से विभाजित है और इस प्रकार पश्चिमी इस्लामी या विभिन्न सांस्कृतिक वर्गो में विभाजित राष्ट्र और लोग लोकतंत्र, मानवाधिकार तथा धार्मिक सहिष्णुता के बारे में भिन्न मत रखते हैं ।
इसलिए किसी भी धर्म के नैतिक मूल्यों को विश्व के किसी भी क्षेत्र पर लादना बहुत कठिन काम है । इस क्षेत्र में पश्चिम वाले जैसा करते हैं, वह गलत है, क्योंकि इसी के कारण अनेक प्रकार के विवाद उठ खड़े होते हैं । इस संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि क्या हंटिग्टन ने अपनी पुस्तक के अंतर्गत जिस विचार को व्यक्त किया है, वह न्याय की भावना पर आधारित है या नहीं ? उनके इस विचार की आलोचनाएँ हुई हैं ।
अमेरिकी शांति सस्थान के निदेशक डेविड लिटल ने हंटिग्टन की आलोचना करते हुए कहा है कि मानव जाति की सभ्यता में ऐसा कोई विरोध अथवा दुराव नहीं है । इसलिए पश्चिमी राष्ट्र विश्व की किसी भी सभ्यता और संस्कृति से अपने को अलग करके न सोचें वरन् वे संपूर्ण विश्व की संभ्यता-संस्कृति में अपने को एक हिस्सेदार के रूप में देखें और उसी के आधार पर अपनी भूमिका का सम्पादन करें ।
इसी दृष्टिकोण से पश्चिमी राष्ट्र विश्व की विभिन्न सभ्यता और संस्कृति के अंतर्गत तापने को एक हिस्सा समझकर विभव-हित सिद्धांतों के द्वारा उसी सहिष्णुता के वातावरण में अपने को ढालें । कोई भी धर्म प्रारंभ से मानव सभ्यता और संस्कृति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है ।
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इसी कारण से विश्व के अंतर्गत विभिन्न भागों में नृजातीय आदोलनों के द्वारा लोग अपनी माँग को हमेशा न्यायोचित ठहराते रहे हैं और उसी के आधार पर आंदोलन भी करते रहे हैं । श्रीलंका का नृजातीय आदोलन एवं इस्लामिक आदोलन इसी प्रकार के आदोलनों में से है । नृजातीय आदोलन विश्व के हर क्षेत्र में किसी न किसी रूप में घटित होता रहा है और इसका संबंध धर्म से वास्तविक-रूप में जुड़ता रहा है ।
ब्रिटेन में कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट आंदोलन मुस्लिम देशों में शिया और सुन्नी का आंदोलन श्रीलंका में तमिलों और सिंहलियों का आंदोलन नृजातीय आंदोलन के रूप में उभरते रहे हैं । नृजातीय आंदोलन का धर्म से व्यापक संबंध होता है । ये आंदोलन राष्ट्रवादी भावनाओं से भी प्रेरित होते हैं । आत्मनिर्णय के सिद्धांत के आधार पर सभी जातियों को अपने धर्म के आधार पर राज्यों के निर्माण का अधिकार है ।
इसी कारण विभिन्न देशों में नृजातीय आदोलन चलते रहे हैं । धर्म की राष्ट्रीयता से गहरा संबंध होता है । किसी भी राष्ट्र का राष्ट्रीय परिवेश धार्मिक परिवेश के अंतर्गत ही निर्मित होता है । उदाहरण के लिए यदि मुस्लिम राष्ट्र कोलिया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि सभी मुस्लिम राष्ट्र किसी न किसी रूप में अपने राष्ट्रवाद को धार्मिक भावना से जोड़कर ही रखते आए हैं ।
भारत को ही यदि लिया जाए तो कहा जा सकता है कि भारत की धार्मिक भावना ने भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण में विभिन्न तत्त्वों को सम्मिलित किया है । जिसके कारण भारतीय राष्ट्रवाद निर्मित हुआ ।
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ईसाई लोग भी अपनी धार्मिक भावना के कारण ही राष्ट्रवादी परंपरा को निर्मित और कार्यान्वित करते रहे हैं और उसी के आधार पर अपने राष्ट्रवाद का रूप देते रहे हैं ।
राष्ट्रवाद धर्म को छोड़ नहीं सकता है और धर्म राष्ट्रवाद से अलग नहीं किया जा सकता । विश्व के समस्त आंदोलन धर्म से ही प्रारभ हुए हैं और राष्ट्रवाद के रूप में परिणत हो गए हैं । इसलिए यह कहना सही प्रतीत होता है कि राष्ट्रवाद और धर्मवाद दोनों एक-दूसरे के पूरक तत्त्व हैं ।
दोनों मिश्रित होकर ही किसी भी देश की सभ्यता एवं संस्कृति का निर्माण एवं संचालन करते हैं । इसलिए निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि जहाँ धर्म सामाजिक एकता को प्रश्रय देता है वहीं वह विकसित और व्यापक होकर अंत में राष्ट्रवाद के रूप में परिणत हो जाता है, क्योंकि धर्म और राष्ट्र एक-दूसरे पर अवलम्बित तत्त्व हैं ।