भारत की विदेश नीति में यथार्थवाद और अंतर्निर्भर दृष्टिकोणों । “Realism and Interdependence in India’s Foreign Policy” in Hindi Language!
भारत की विदेश नीति में अंतर्निर्भर दृष्टिकोण और यथार्थवादी दृष्टिकोण:
भारतीय विदेश नीति के अंतर्गत परंपरागत उपागम का क्षेत्र कई सिद्धांत पर आधारित है । इसमें अंतर्निर्भर दृष्टिकोण और यथार्थवादी दृष्टिकोण प्रमुख हैं । इन पर इस प्रकार से प्रकाश डाला जा सकता है ।
(1) अंतर्निर्भर दृष्टिकोण:
प्रारंभ से ही यह देखा जा रहा है कि भारत के आंतरिक कारण एवं विदेश नीति के संचालन के तत्त्वों के बीच गहरा संबंध रहा है क्योंकि भारत ने अपनी वैदेशिक नीति आतरिक तत्त्वों के प्रभाव के अंतर्गत ही प्रारंभ की है ।
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भारत की सुरक्षा केवल प्राचीन समस्या ही नहीं वरन् आधुनिक समस्या भी है, क्योंकि भारत की सैनिक सुरक्षा संबंधी धारणा संकीर्ण एवं पुरानी है । 1990 के दशक में विद्वानों ने इस बात पर बल दिया है कि भारत की वैदेशिक नीति राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है ।
इस परिस्थिति में भारत का अन्य देशों के साथ संबंध किस प्रकार का होगा यह एक विषम समस्या बन गई है । आधुनिक युग में यह महसूस किया जाने लगा है कि विभिन्न राज्यों की व्यवस्था एवं अंतर्राज्यीय व्यवस्था से अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का स्थान कहीं ऊँचा है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के राज्य (विजित, पराजित राज्य) एवं राज्यों के कर्त्ता भी सम्मिलित हैं ।
इसके अंतर्गत राज्यों के अतिरिक्त विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठन गैर-सरकारी, संगठन अंतर्राष्ट्रीय संगठन निगम समितियाँ और विभिन्न वित्तीय संस्थाओं के समूह सम्मिलित हैं । यह किसी एक राज्य अथवा कुछ राज्यों के संगठन तक ही सीमित नहीं है ।
यह विशाल संगठन, है जिसके अंतर्गत-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सरकारी और गैर-सरकारी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों निकाय सम्मिलित हैं । आधुनिक युग में यह महसूस किया जाने लगा है कि किसी भी राष्ट्र की सुरक्षा और सैनिक संगठन संपूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा का एक अंग मात्र हैं ।
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केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से ही अंतर्राष्ट्रीय पहलुओं पर विचार करना संकीर्ण और गतिहीन विचार का द्योतक कहा जा सकता है । आधुनिक युग में अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद, अपराधवाद, पर्यावरण प्रदूषण, शरणार्थियों का विस्थापन, अनैतिक और अवैधानिक तरीके से पूँजी का हस्तांतरण, दक्षिणी भूभाग के देशों में गरीबी का तांडव, उतरी भूभाग में अमीरी का अम्बार उत्तर और दक्षिण के बीच आमदनी का विषम अंतर आदि तत्त्व सामाजिक सुरक्षा तथा किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता को प्रभावित करते हैं ।
जब तक इस अंतर को समाप्त नहीं किया जाता तब तक उत्तर-दक्षिण के अंतर को पाटा नहीं जा सकता । यह विश्व के सम्मुख बहुत बड़ी चुनौती है । आधुनिक युग में विश्व का कोई भी देश पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर नहीं है । इस क्षेत्र में महाशक्तियाँ भी विभिन्न प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रही हैं, क्योंकि ये महाशक्तियाँ भी अंत आत्मनिर्भरता के जाल में फंसी हुई हैं ।
इसी अंत आत्मनिर्भरता के कारण सभी देशों के लिए नए तरीके सेविभिन्न राज्यों एव देशों के साथ सहयोग स्थापित करना आवश्यक हो गया है, क्योंकि बिना अंतर्राज्यीय सहयोग के कोई भी राज्य अपने आप में आत्मनिर्भर नहीं हो सकता । आत्मनिर्भरता के लिए बाह्य सहयोग आवश्यक हो गया है ।
शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद विश्व में आर्थिक एकीकरण की प्रणाली तेजी से पनपी है । इस प्रणाली में अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विभिन्न राज्यों के बीच अंत संबंधों को विशेष रूप से प्रश्रय मिला । विकासशील देशों का पश्चिम के विकसित देशों से मधुर संबंध कायम हुआ जिसके फलस्वरूप इन देशों के बीच आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक संबंध गहरे होते गए ।
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इन तत्त्वो का विश्लेषण यथार्थवादी नहीं कर रहे हैं । आधुनिक युग में विभिन्न विकासशील देशों में विशिष्ट वर्ग की उत्पत्ति विस्तृत जनसंख्या की गरीबी जनसंख्या वृद्धि शरणार्थियों का विस्थापन और प्रदूषण आदि समस्याओं पर यथार्थवादी ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि ये सारे तत्त्व अब पुराने पड़ गए हैं और शक्ति की राजनीति के अंतर्गत वे इसके महत्त्व को नकारते हैं ।
आधुनिक युग में राष्ट्रों के बीच अंत निर्भरता आर्थिक भूमंडलीकरण के कारण व्यापक रूप से बड़ी है । इस वृद्धि ने आर्थिक क्षेत्र में आर्थिक कर्त्ताओं, प्रक्रियाओं और संस्थाओं का विकास किया है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय निर्भरता का क्षेत्र विस्तृत हो गया है ।
अंतर्राष्ट्रीय निर्भरता को विकसित करने में अंतर्राष्ट्रीय संगठन जैसे-विश्व व्यापार संगठन विश्व मुद्रा कोष विश्व बैंक एवं समूह-सात के देश व्यापक रूप से मदद कर रहे हैं । इन संस्थाओं के द्वारा व्यापक रूप से विकासशील देशों की आर्थिक मदद करना और आर्थिक मदद के परिणामस्वरूप विकसित देशों के लिए विकासशील देशों में प्रवेश के लिए ऋण सहायता औद्योगिक प्रगति कृषि का विकास आदि तत्त्व प्राचीन हो गए हैं ।
इन तत्त्वों का राष्ट्रीय संप्रभुता पर कोई व्यापक प्रभाव नहीं पड़ रहा है, क्योंकि सैनिक और अन्य दृष्टि से शक्तिशाली राष्ट्र भी आर्थिक मंदी के दौर में डाँवाडोल होने लगते हैं । 1990 के दशक में आई आर्थिक मंदी के कारण बहुत-से विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था ढहने लगी और विकसित देशों को भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ।
इस नई आर्थिक नीति अथवा आर्थिक ढाँचे के अंतर्गत प्रवेश करना भारतीय वैदेशिक नीति की एक बहुत बड़ी कठिनाई है । इसी आधार पर यह प्रश्न उठता है कि नई विश्व अर्थव्यवस्था में भारत किस तरह प्रवेश करेगा और भारत का इसमें स्थान क्या होगा ? नई आर्थिक नीति के कारण भारत की वैदेशिक नीति के सम्मुख यह चुनौती है ।
यह चुनौती भारत के महाशक्ति बनने के लक्ष्य से अधिक महत्वपूर्ण है । यदि हम भारत के विषय में सोचें, तो यह बात स्पष्ट होती है कि भारत को बड़ी शक्ति बनने के स्वप्न से अपने को अलग करना होगा, क्योंकि अंत निर्भरता के कारण अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र मे विकसित देश तथा महाशक्तियाँ भी संबंधों को प्रभावित नहीं कर रही हैं ।
इसके उदाहरण के रूप में यह कहा जा सकता है कि अमेरिका भी अंत: संबंधों को प्रभावित न कर सका और उसने शीत-युद्ध के दौरान अंतर्राज्यीय संबंधों को प्रभावित करना प्रारंभ किया और शीत-युद्ध के बाद उसने अंतर्राज्यीय संबंधों को व्यापक रूप से प्रभावित भी किया ।
इंग्लैंड, जापान, जर्मनी, फ्रांस जैसी शक्तियाँ भी अंतर्राज्यीय संबंधों को प्रभावित नहीं कर सकीं । आधुनिक युग में जटिल अत निर्भरता की समस्या ने विश्व के सभी देशों को प्रभावित किया है, क्योंकि इसका अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में व्यापक रूप से विस्तार हुआ है, जिसके कारण बहुध्रुवीय शक्तियों का सामंजस्य के आधार पर उदय हुआ है ।
इन शक्तियों में भारत भी शामिल है । इस तरह यह आवश्यक हो जाता है कि भारत विवेकपूर्ण तरीके से बहुध्रुवीय शक्तियों में शामिल हो और लाभ उठाए तथा वैश्वीकरण में अपने को शामिल करके अपने उद्देश्यों की पूर्ति करे ।
यथार्थवादियों ने भारत को यह परामर्श दिया है कि भारत को चीन के साथ आर्थिक एवं व्यापारिक गठबंधन बनाना चाहिए और उसके साथ व्यावहारिक रूप से आयात-निर्यात की प्रक्रिया को तीव्र करके लाभ उठाना चाहिए तथा आदान-प्रदान की प्रक्रिया के द्वारा सीमा-विवाद तथा अन्य समस्याओं का समाधान करना चाहिए ।
आज के युग में यह आवश्यक नहीं है कि भौगोलिक निकटता के होते हुए भी दोनों देश आपस में प्रतिद्वंद्वात्मक प्रतिस्पर्धा कायम करें । इसे त्यागकर दोनों देशों को आयात-निर्यात, व्यापार-वाणिज्य और संयुक्त उत्पादन की पद्धति का विकास खुले दिल से करना चाहिए । यह चिंतन भारत और चीन के बीच भू-अर्थशास्त्र के सिद्धांतों को उपयुक्त और उचित बताता है ।
भारत-चीन संबंध के विषय में यथार्थवादी इसी सिद्धांत को यथार्थ के रूप में मानते हैं, परंतु आलोचकगण यथार्थवादियों की इस भावना के विपरीत यह कहते हैं कि यथार्थवाद के इस विचार ने अनेक प्रकार, की समस्याओं को उत्पन्न किया है ।
उनका मानना है कि चीन से संबंध सुधारने की अपेक्षा भारत को अपनी वैदेशिक नीति के अंतर्गत दक्षिण-एशिया में आर्थिक विकास और सहयोग को विस्तृत बनाना चाहिए । इन दार्शनिकों ने दक्षिण एशिया के ऊपर अपना ध्यान केंद्रित करके भारत की वैदेशिक नीति के दो तत्त्वों को विशेष रूप से महत्त्व दिया है ।
उनका मानना है कि भारत को पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को कटु बनाने की अपेक्षा विकास की ओर ले जाने और धीरे-धीरे मधुर संबंध के रूप में बदलने का प्रयास करना चाहिए । ऐसा करने से भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में मधुरता आ सकती है और दोनों देश मिलकर आपसी सहयोग कर सकते हैं ।
इस दृष्टिकोण के विद्वानों का मानना है कि भारत को पाकिस्तान के साथ शांति अभियान प्रारंभ करना चाहिए तथा पाकिस्तान को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि भारत पाकिस्तान का शत्रु नहीं है । भारत को पाकिस्तान के साथ परमाणु मुद्दे पारस्परिक व्यापार, उद्योग, वाणिज्य आदि के क्षेत्र में सहयोगात्मक व्यवहार प्रारभ करना चाहिए और दोनों देशों के बीच अधिकतम मात्रा में नागरिकों के आवागमन की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए ।
इस धारणा के विद्वानों का मत है कि भारत को दक्षिण एशिया के देशों के साथ सहयोगात्मक संबंध स्थापित करके अपने उद्देश्यों की पूर्ति का प्रयत्न करना चाहिए । इन विद्वानों के अनुसार सार्क संगठन के विकास से क्षेत्रीय सहयोग में वृद्धि होगी क्षेत्रीय रंगमंच पर आर्थिक विकास होगा और इसी के माध्यम से एशिया-प्रशांत आर्थिक सम्मेलन तथा दक्षिण अमेरिकी सामान्य बाजार के साथ भारत अपने आर्थिक संबंधों को जोड़कर कूटनीतिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करेगा तथा भविष्य में दक्षिण एशिया के देशों के सहयोग से भारत को क्षेत्रीय स्तर पर प्रमुख बनने का अवसर मिलेगा ।
दक्षिण एशिया का संगठन विद्वानों की राय में एक सामुदायिक एवं राजनीतिक संगठन के रूप में जाना जाता है और इसके सहयोग से भारत के क्षेत्रीय स्तर पर नेतृत्व करने की आवश्यकता महसूस की जाती है ।
इस संगठन से बाह्य शक्तियों को दूर रखना इसलिए आवश्यक है कि उनके आगमन से संगठन में बिखराव हो सकता है । इस संगठन से भारत की अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है और अंतर्राज्यीय संबंधों में मधुरता आ सकती है ।
सार्क के द्वारा कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद, बंगलादेशी घुसपैठिए और श्रीलंका की तमिल समस्या का समाधान आसानी से किया जा सकता है । इससे भारत के आंतरिक क्षेत्र में शांति-व्यवस्था की स्थापना पड़ोसी देशों के साथ मधुर संबंधों की स्थापना और विकास की समस्या का समाधान हो सकता है ।
अंत निर्भरता का एक व्यावहारिक पहलू यह है कि यह राष्ट्रों के बीच व्यापार एवं आर्थिक सहयोग की भावना पर अवलम्बित है । आधुनिक युग में इन कार्यों का सम्पादन कूटनीतिक साधनों के द्वारा किया जा सकता है । ऐसा करने से विभिन्न दूतावासों के बीच संबंधों में निकटता आएगी और निकटता के कारण सहयोगात्मक नीति का विकास होगा ।
(2) यथार्थवादी दृष्टिकोण:
भारतीय वैदेशिक नीति पर यथार्थवाद का प्रारंभ से ही व्यापक प्रभाव रहा है । भारत को स्वयं को यथार्थवादी ढाँचे से तथा उसके पश्चात् बड़ी शक्ति की स्थिति से मुक्त करना होगा । आधुनिक युग में आर्थिक उदारीकरण के कारण व्यापार का प्रभाव बढ़ रहा है, जिसका स्पष्ट प्रभाव विश्व के विभिन्न भागों में दिखाई पड़ रहा है ।
भारत के नेता राजनयिक अभिजन वर्ग और राजनीतिक वर्ग सामान्य रूप से भारत के हित में यथार्थवादी चिंतन के आधार पर ही अपने कार्यों का सम्पादन कर रहे हैं । आधुनिक युग में विश्व में शक्ति की राजनीति का प्रचलन चल पड़ा है, जिसके आधार पर लोग यह महसूस करते हैं कि किसी भी राष्ट्र का हित शक्ति की राजनीति के द्वारा ही संभव हो सकता है, क्योंकि राष्ट्र की सुरक्षा शक्ति की राजनीति के द्वारा ही सभव हो सकती है ।
आधुनिक यथार्थवादी दार्शनिक मार्गेन्थाऊ का कहना है कि शक्ति की राजनीति के द्वारा ही राष्ट्र के हितों की पूर्ति की जा सकती है । भारतीय अंतर्राष्ट्रीय नीति का सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व है, राष्ट्र की सुरक्षा और इसके बाद ही अन्य तत्त्वों की उपयोगिता महसूस की जाती रही है । भारत अंतर्राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत राष्ट्र की सुरक्षा के अतिरिक्त नेतृत्व की भावना से भी अभिप्रेरित है, क्योंकि वह राष्ट्र की सुरक्षा के साथ-साथ नेतृत्व को भी विशेष महत्त्व दे रहा है ।
परंपरागत रूप से यह धारणा रही है कि विशाल क्षेत्र, विशाल भूभाग और विस्तृत जनसंख्या तथा आर्थिक समृद्धि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए यथार्थवादी चिंतन है, परंतु आधुनिक युग में परमाणु अस्त्रों के प्रचार-प्रसार और विभिन्न प्रकार की युद्धजनित सामग्रियों के विकास ने इस बात को स्पष्ट कर दियां है कि वैदेशिक नीति का मुख्य तत्त्व परंपरागत तत्त्व नहीं वैज्ञानिक उपलब्धि के द्वारा युद्ध सामग्रियों का विकास करना है ।
इसी से भारत की वैदेशिक नीति संचालित की जा सकती है । 1998 के परमाणु बम परीक्षण एवं युद्ध सामग्रियों के विकास से भारत को विश्व राजनीति में एक महाशक्ति के रूप में देखा जाने लगा है । भारत की यथार्थवादी वैदेशिक नीति का एक पक्ष यह भी है कि भारत को अपने पड़ोसी राष्ट्रों के साथ मिल-जुलकर सहयोगात्मक नीति के द्वारा क्षेत्रीय नेतृत्व की बागडोर संभालनी चाहिए । भारत ने इस यथार्थवाद की महत्ता को पहचाना है ।
आधुनिक युग में 1962 के भारत पर चीन के आक्रमण के कारण यह महसूस किया जाने लगा है कि चीन भारत का प्रतिद्वंद्वी और प्रतिस्पर्धी है । उसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में पाकिस्तान से मित्रता स्थापित करके भारतीय हितों को धक्का पहुँचाने का विचार रखा है ।
इसलिए यथार्थवाद का यह तकाजा है कि एक तरफ पाकिस्तान को अपने पक्ष में किया जाए और चीन की आणविक नीति की चुनौती को देखते हुए अपनी सामरिक क्षमता बढ़ाई जाए तथा विश्व के बड़े देशों जैसे सोवियत रूस से मधुर संबंध स्थापित करके यथार्थवादी नीति के आधारु पर अपने को सशक्त बनाया जाए ।
यथार्थवादी दृष्टिकोण इस बात पर बल देता है कि आर्थिक क्षमता को विकसित करके अन्य देशों के साथ मधुर संबंध स्थापित करके विश्व राजनीति में अपने नेतृत्व को शक्तिशाली बनाया जाए । यही भारतीय वैदेशिक नीति का यथार्थवादी चिंतन रहा है ।