भारत की विदेश नीति के उपागमों में यथार्थवाद और जटिल नव-यथार्थवाद की तुलना और अंतर । “Comparison between Realism and Neo-Realism” in Hindi Language!
भारत की विदेश नीति के राजनीतिक यथार्थवाद तथा जटिल नव-यथार्थवाद उपागम:
यह बात पूर्णरूपेण सिद्ध है कि भारत की वैदेशिक नीति की स्थापना एवं कार्यान्वयन के संदर्भ में अमेरिका को छोड़कर अन्य सभी परिवेश का यथार्थवादी प्रभाव भारतीय वैदेशिक नीति पर प्रारंभ से ही पड़ता रहा है । भारतीय विदेश नीति अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रतिक्रियाओं का मिश्रण मात्र नहीं है ।
कम से कम छह अभिज्ञेय समूहों के सोपानक अर्थात् सैनिक, राजनयिक दूतवर्ग, नौकरशाही, राजनीतिक वर्ग, मीडिया एवं परिषद् सदस्य से नीति विशेषज्ञ तथा विदेश नीति संगठन से वैज्ञानिकों एवं तकनीकीकर्त्ताओं के समुदाय भारत की विदेश नीति के निर्माण में सहायक हैं ।
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युद्धनीतिज्ञ समूह आपस में सम्मिलित हैं तथा राज शक्ति का व्यवहार समूह जैसे अन्य लोगों से ज्यादा उपयोग करते हैं, यद्यपि आर्थिक उदारीकरण के कारण व्यापार का प्रभाव बढ़ रहा है और यह विभिन्न सरकार-व्यापार परामर्शक प्रक्रियाओं में दिखाई पड़ता है ।
उक्त उल्लिखित छह-अभिज्ञेय समूहों के मध्यम सोपानक भले ही प्रभाव न कर सकें परंतु लोकप्रिय स्तर पर नीति को वैधता प्रदान करते हैं । यह आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि विदेश नीति एवं, कूटनीति को विशिष्ट वर्ग ही प्रभावित करते हैं ।
भारत के युद्धनीतिज्ञ राजनीतिक यथार्थवाद या साधारण यथार्थवाद की परिसीमा के अंतर्गत ही कार्य करते हैं । यह युद्धनीतिहा स्वयं को दूरदर्शी उत्तरदायी एवं अनुभवी मानते हैं और व्यावहारिक समस्या के समाधान के लिए अभिमुखी या अनुकूल माने जाते हैं । ये युद्धनीतिज्ञ समूह तदर्थ तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं ।
इसके विपरीत ये युद्धनीतिज्ञ समूह विदेश नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपने मूलभूत लक्ष्यों और साधनों से अभिज्ञ हैं । राजनीतिक यथार्थवाद शक्ति को अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधार मानता है जो कि सामान्यत: संघर्षात्मक तरीका माना गया है, जहाँ प्रत्येक राज्य स्वार्थपरक तरीके से अपनें हित की प्राप्ति में लगा रहता है ।
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नव-यथार्थवाद राजनीति की सर्वोच्चता को स्वीकार करता है, लेकिन यह भी मानता है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का आधार अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था है, जो कि सिर्फ संघर्ष ही नहीं बल्कि पात्र या राज्यों के हितों के अभिसरण पर आधारित है ।
उक्त उल्लिखित दृष्टिकोण के अनुसार, बाह्व राष्ट्रीय सुरक्षा तथा आंतरिक राष्ट्रीय एकता के साथ तीन प्रमुख लक्ष्य जुड़े हुए पाए गए हैं । दो अतिरिक्त लक्ष्य हैं, तृतीय विश्व में तथा क्षेत्र के अंतर्गत नेतृत्व एवं भारत के क्षेत्र महत्ता और सामर्थ्य के अनुरूप राष्ट्र-राज्य के समूहों के बीच एक उचित स्थान ।
इस उपागम की दो मान्यताएँ हैं: प्रथम, भारत राज्य की सुरक्षा सर्वोपरि है तथा इसे राष्ट्रीय हित माना जाता है । बाकी सभी तत्त्व एवं लक्ष्य इस बुनियादी राष्ट्रीय हित के अधीनस्थ हैं । यह सभी राजनीतिक एवं युद्धनीतिज्ञ चिंतन एवं योजनाओं का मार्गदर्शक है ।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि सुरक्षा की राजनीतिक-सैन्य शब्दावली में व्याख्या की गई है । यह माना जाता है कि भौतिक एवं सैन्य दृष्टिकोण से सुरक्षित राष्ट्रीय-राज्य समाज की एकता, एवं कल्याण के लिए यह अत्यावश्यक है ।
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विदेशी प्रभुत्व एवं उपनिवेशवाद के अनुभव एवं विश्वास ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लक्ष्य की महत्ता को और बढा दिया है । जब-जब भारत का राज्यतंत्र विखंडनज एवं कमजोर रहा है, तब-तब देश विदेशी प्रभुत्व एवं शासन का शिकार रहा है ।
दूसरी, मान्यता के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था वास्तव में एक अंतर-राज्य व्यवस्था है । गैर-राज्य एवं परा-राज्य कर्त्ता/पात्र की उपस्थिति भी है, परंतु अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में राज्य की केंद्रीयता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के वैधानिक एवं नैतिक मानदंड का सभी देशों द्वारा पालन किया जाना चाहिए । लेकिन अंतत: विश्व को बड़ी शक्तियाँ ही गठित करती हैं, क्योंकि उन्हीं के पास शक्ति है । यह एक विवादास्पद विषय है लेकिन शक्ति की स्पष्ट रूप से राज्य की शक्ति के रूप मे ही व्याख्या की गई है ।
ऐसा कहा जाता है कि भारत संभवत: एक विश्व शक्ति है, इसलिए उसे अपने सामर्थ्य को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए इसकी विदेश नीति को इस आकांक्षा को प्रतिबिम्बित करना चाहिए तथा इसकी उपलब्धियों को प्रोत्साहित करना चाहिए ।
भारत का परमाणु एवं प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम, अंतरिक्ष अनुसंधान तथा इसकी वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपलब्धियाँ, असैनिक नियंत्रण के अधीन एक विशाल और पेशेवर सुरक्षा बल, एक अति-सक्षम नौकरशाह वर्ग, एक विशाल पेशेवर एवं कुशल जनसंख्या, एक दूरदर्शी नेतृत्व एवं भारतीय लोकतंत्र, ये सभी तत्त्व राष्ट्रीय सुरक्षा एवं बड़ी शक्ति की पदवी को हासिल करने के लिए आवश्यक माने गए हैं ।
जवाहरलाल नेहरू ने अपने कुशल अनुभव के द्वारा जिस वैदेशिक कूटनीति और नीति का विकास किया वह भारतीय वैदेशिक नीति का प्रामाणिक तत्त्व है । इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में सैन्य शक्ति का क्रमबद्ध विकास तथा 1990 के पश्चात् चतुराईपूर्वक महत्त्वपूर्ण शक्तियों को राजनीतिक एवं युद्धनीति संबंधित वार्ताओं में व्यस्त रखना भारतीय विदेश नीति की महत्वपूर्ण क्षमता को प्रदर्शित करता है, जो उसके बड़ी शक्ति होने का प्रमाण है ।
इस प्रवृति के कारण ही सभी राजनीतिक उद्घोषणाओं और विश्लेषणों में अक्सर भारत को एक बड़ी शक्ति या बड़ी शक्ति की क्षमता वाला देश माना गया है । परमाणु बम के परीक्षण एवं 1998 के बाद से प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के कारणभारत को एक ‘बड़ी’ शक्ति, कभी ‘उभरती’ हुई शक्ति एवं कभी ‘महाशक्ति’ कहकर संबोधित किया जाने लगा है ।
स्वतंत्रता पश्चात् करीब 1960 के दशक तक भारत के ‘युद्धनीतिज्ञ समूह’ ने देश को भविष्य में एक महान शक्ति बनना एक नियति माना तथा दो अन्य एशियाई शक्तियों-रूस एवं चीन को इसका प्रतिद्वंद्वी माना । 1980 के दशक तक भारतीय यथार्थवादियों का महत्त्वाकांक्षी दृष्टिकोण था लेकिन उन्होंने भारत की क्षेत्रीय महता को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि समस्त विश्व इस तथ्य को स्वीकार कर ले ।
दूसरे शब्दों में, देश को दक्षिण एशिया में एक अग्रणी के रूप में प्रस्तुत करना न कि एक आधिपत्य के रूप में । सोवियत संघ के विघटन तथा शीत युद्ध के पश्चात् की अनिश्चितता के वातावरण में इस दृष्टिकोण को बल मिला और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने भी भारत को एक बड़ी शक्ति के रूप में स्वीकार किया ।
क्षेत्रीय अग्रणी का विचार एक सशक्त एवं उत्तरदायी अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी की इच्छा के साथ संलग्न था । जटिल नव-यथार्थवाद के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय संबंधी में परिवर्तन के समय जैसा कि सोवियत संघ के विघटन के समय उत्पन्न स्थिति में मध्यवर्ती शक्तियों को उपरिमुखी गतिशीलता का अवसर मिलता है ।
1990 के दशक में भारतीय विदेश नीति के अंतर्गत परमाणु अस्त्रों का सफल परीक्षण, दूर तक मार करने वाली प्रक्षेपास्त्र प्रणाली का विकास तथा अपनी सैन्य क्षमता के बल पर बड़ी शक्तियों के संघ में शामिल होने का मार्ग था । भारतीय विदेश नीति के यथार्थवादी दृष्टिकोण में कुछ ऐसे प्रसंग हैं, जिनकी बार-बार पुनरावृति हुई ।
सर्वप्रथम सर्वथा यह देखा गया कि चीन भारत का संभावित या वास्तविक सैन्य प्रतियोगी या प्रतिद्वंद्वी है । 1962 के भारत-चीन संघर्ष तथा सीमा विवाद ने इस दृष्टिकौण को बल प्रदान किया है कि दो बड़े और शक्तिशाली पड़ोसियों का प्रतिद्वंद्वी होना तय है, कम से कम समय-समय पर तो अवश्य ही ।
पाकिस्तान का विद्वेष तथा जम्मू और कश्मीर के ऊपर विवाद शीत युद्ध के समय सोवियत संघ की तरफ झुकाव एव उसके साथ 1971 की मैत्री संधि तथा भारत-अमेरिका संबंधों के हर एक पहलू का चीनी आयाम रहा ।
चीन का एक आर्थिक एवं सैन्य शक्ति के रूप में उदय का एशिया एवं प्रशांत तथा हिन्द महासागर क्षेत्र की सुरक्षा में बड़ा एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा । परिणामत: क्षेत्रीय समीकरणों के असंतुलन एवं पुन संतुलन से भारत की सुरक्षा और संप्रभुता पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा ।
चीन के इस असंतुलित प्रभाव के जवाब में भारत की विशाल जनसंख्या (जिसका स्थान विश्व में द्वितीय है), बढ़ता हुआ सकल घरेलू उत्पाद तथा कुशल मानव-शक्ति एवं इसके दस लाख से भी अधिक बड़े सुरक्षा बल को हमेशा तैयार रहना होगा ।
1998 के परमाणु परीक्षण से पहले का यह घोषित मत है कि चीन भारत का शत्रु नंबर एक है, इसी यथार्थवादी चिंतन को प्रदर्शित करता है । उपर्युक्त वर्णित विचार उस अंतःराज्य संबंध और भू-राजनीतिक विचार की ऐतिहासिक धारणा को व्यक्त करता है, जिसे यथार्थवादी मानते आए हैं ।
चीन की सैन्य चुनौती का प्रतिकार एवं भारत का ‘बड़ी शक्ति’ के संघ में होना उसके परमाणुकरण को तर्कसंगत ठहराता है । अत: यह तर्क दिया जाता है कि भारत का परमाणु शक्ति होने का निर्णय उसके पाकिस्तान के संबंधों से स्वतंत्र है ।
प्रतियोगी सुरक्षा उपागम का एक कथन कि ‘हमारे प्रतिद्वंद्वी की असुरक्षा में ही हमारी सुरक्षा है’ यथार्थवादियों द्वारा कुछ समय तक प्रोत्साहित किया गया । पाकिस्तान के साथ संबंधों में भारत की विदेश नीति के योजक एवं विश्लेषकों का पर्याप्त समय और ऊर्जा लगा है ।
एक स्थाई, सुरक्षित एवं लोकतांत्रिक पाकिस्तान भारत के राष्ट्रीय हित में है, न कि एक उद्धत राष्ट्रवादी, निरंकुश और भारत से वैर रखने वाला पाकिस्तान । भारत-पाक संबंधों में कई समस्याएँ पाई गई हैं । पाकिस्तान के पश्चिम गुट के साथ संबंधों ने शीत युद्ध को भारत की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया । इन संबंधों द्वारा उत्पन्न समाप्ति के भय को दूर करने के लिए भारत ने एक अत्यत कुशल कूटनीति का सहारा लिया ।
पश्चिमी देशों विशेष तौर पर अमेरिका ने पाकिस्तान को अपने अंतर्राष्ट्रीय सैन्य हितों के दृष्टिकोण से देखा है । एक अन्य चिंता का विषय है ‘चीन-पाकिस्तान धुरी’ । पाकिस्तान चीन का उस समय से सबसे भरोसे का साथी है, जब चीन अंतर्राष्ट्रीय मसलों में अलग-थलग पड़ गया था ।
चीन का पाकिस्तान को गुप्त रूप से उसके परमाणु एव प्रक्षेपास्त्र विकास कार्यक्रम में मदद देना उनके भारत-विरोधी रिश्ते को दिखाता है । कुछ बाहरी शक्तियों और दबाव का उद्देश्य भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य समानता लाना है, जो कि भारतीय विदेश नीति निर्माताओं एवं नेतृत्व के लिए चिंता का विषय है ।
भारत क्षेत्र, जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद, सैनिक क्षमता आदि में पाकिस्तान से कई गुना बड़ा है । पाकिस्तान से सैन्य समानता की यह बाहरी विचारधारा उसके बड़ी शक्ति होने के भारत के दावे पर रुकावट खड़ी करती है ।
अंतर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय शक्तियों का अभिमुख होना तथा जम्मू और कश्मीर विवाद ने भारत-पाकिस्तान संबंधों को कटु बना दिया है । यथार्थवादियों का कहना है कि पाकिस्तान के साथ विरोध राष्ट्रीय एकता के लिए हानिकारक है । पाकिस्तान भारत की सीमा-पार से जम्मू-कश्मीर एवं पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवादियों को मदद करना जैसी कई घरेलू समस्याओं का स्रोत है ।