Read this article in Hindi to learn about the role of biodiversity at global, national and local levels.
इस समय लगभग 18 लाख प्रजातियाँ दुनिया के वैज्ञानिकों द्वारा ज्ञात और प्रलेखित हैं । फिर भी वैज्ञानिकों का अनुमान है कि पृथ्वी पर पौधों और पशुओं की प्रजातियों की संख्या डेढ़ से दो अरब तक हो सकती है । कहने का तात्पर्य यह है कि अधिकांश प्रजातियों की खोज होनी अभी बाकी है ।
दुनिया के अधिकांश जैव-समृद्ध राष्ट्र ‘दक्षिण’ में है, अर्थात वे ‘विकासशील’ राष्ट्र हैं । इसके विपरीत, जैव-विविधता के शोषण में समर्थ अधिकांश देश उत्तर के हैं । आर्थिक रूप से ‘विकसित’ जगत को अब महसूस हो रहा है कि जैव-विविधता को ‘अंतर्राष्ट्रीय संसाधन’ माना जाना चाहिए ।
लेकिन अगर जैव-विविधता ऐसी ‘साझी संपत्ति’ है जिसमें सभी देश भागीदार हैं तो अंतर्राष्ट्रीय संपदा में तेल या यूरेनियम को, बल्कि बौद्धिक या प्रौद्योगिक विशेषज्ञता को भी न शामिल करने का कोई कारण नहीं है । सभी प्रकार से प्राकृतिक संसाधनों में भागीदारी को लेकर दुनिया की सोच में क्रांतिकारी परिर्वतन अगर नहीं आता तो अपनी जैव-विविधता पर भारत की प्रभुसत्ता को बलिदान नहीं किया जा सकता ।
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भारत से अधिक आर्थिक जैव-विविधता वाले कुछ देश दक्षिण अमरीका में हैं, जैसे ब्राजील या दक्षिण-पूर्व एशिया के देश हैं, जैसे मलेशिया और इंडोनेशिया । पर इन देशों में मौजूद प्रजातियाँ हमारे यहाँ से भिन्न हैं । इसके कारण एक प्रमुख आर्थिक संसाधन के रूप में अपनी जैव-विविधता का संरक्षण हमारे लिए अनिवार्य हो जाता है । जहाँ भारी विविधता वाले दूसरे राष्ट्र जैव-प्रौद्योगिकी और जननिक अभियांत्रिकी के लिए अपनी प्रजातियों के उपयोग की प्रौद्योगिकी विकसित नहीं कर पाए हैं, वहीं भारत ऐसा करने में समर्थ है ।
पूरी दुनिया में जैव-समृद्ध प्राकृतिक क्षेत्रों को आज महत्त्व दिया जा रहा है, क्योंकि यह बात स्पष्ट हो गई है कि वे अमूल्य हैं । विश्व धरोहर संविदा (World Heritage Convention) जैसे अंतर्राष्ट्रीय समझौतों ने ऐसे क्षेत्रों के संरक्षण के प्रयास किए हैं । भारत इस संविदा पर हस्ताक्षर कर चुका है और अपने अनेक संरक्षित क्षेत्रों को उसने विश्व धरोहर स्थलों में शामिल कर लिया है । भूटान-भारत सीमा पर मानस, असम में काजीरंगा, राजस्थान में भरतपुर, हिमालय में नंदादेवी और पश्चिम बंगाल में गंगा के डेल्टा में स्थित सुंदरवन इन स्थलों में शामिल हैं ।
भारत ने संकटग्रस्त प्रजाति व्यापार संविदा (Convention in the Trade of Endangered Species-CITES) पर भी हस्ताक्षर किए हैं । इसका उद्देश्य संकटग्रस्त पौधों और पशुओं का उपयोग कम करने के लिए उनके उत्पादों के व्यापार पर और पालतू पशुओं के व्यापार पर अंकुश लगाना है ।