Read this article in Hindi to learn about the five main case studies on biodiversity.
केस अध्ययन # 1:
कैलादेवी अभयारण्य, सवाई माधोपुर, राजस्थान (Kailadevi Wildlife Sanctuary, Sawai Madhopur, Rajasthan):
देशभर के अधिकांश संरक्षित क्षेत्रों में संरक्षण के प्रयासों के कारण ग्रामीणों और वन अधिकारियों के बीच टकराव होते रहते हैं । लेकिन राजस्थान के कैलादेवी अभयारण्य में संरक्षण और पुनर्जीवन में स्थानीय समुदाय की पहल भी शामिल है । यह अभयारण्य 1334 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले रणथंभौर बाघ रिजर्व के एक भाग के रूप में 674 वर्ग किमी में 1983 में आरंभ किया गया था । यह सवाई माधोपुर जिले के करौली और सपातरा प्रखंडों में स्थित है ।
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यहाँ मुख्य रूप से आबाद मीणा और गुज्जर समुदायों का प्रमुख व्यवसाय पशुपालन और निर्वाही कृषि है । इस अभयारण्य पर जो दबाव पड़े उनमें से एक था राबड़ी नाम के प्रवासी चरवाहों द्वारा राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र से ड़ेढ लाख से अधिक भेड़ें लेकर आना । इमारती और जलावन लकड़ी का दोहन, तथा खनन कार्य दूसरे दबाव थे । प्रवासी चरवाहों से पैदा जोखिम के कारण 1990 में ‘बड़ागाँव की पंचायत’ बनी जिसने ‘भेड़ भगाओ आंदोलन’ का आरंभ किया ।
वन विभाग ने वन सुरक्षा समितियों के गठन में गाँव वालों का साथ दिया । अपने संसाधनों की सुरक्षा में गाँववालों की भागीदारी से स्पष्ट लाभ हुए । गैरकानूनी कटाई बंद हो गई । वन संसाधनों के स्थानीय उपयोग पर निगरानी रखी जाने लगी । ये समितियाँ अभयारण्य में खनन कार्य को रोकने में कामयाब रहीं । लोग न केवल अपने वनों को सुरक्षित रख रहे हैं बल्कि उनके संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग भी कर रहे हैं ।
केस अध्ययन # 2:
कोक्कड़े बेल्लूर, कर्नाटक: सह-अस्तित्व (मानव और वन्यजीवन) (Kokkare Bellure, Karnataka: Co-Existence (Man and Wildlife):
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पेलिकन एक संकटग्रस्त प्रजाति है । कोक्कड़े बेल्लूर में इसका भारी संख्या में प्रजनन होता है जो भारत में इसके दस ज्ञात प्रजनन स्थलों में एक है । कोक्कड़े बेल्लूर कर्नाटक (दक्षिण भारत) का एक गाँव है । हर साल दिसंबर में चित्तीदार चोंचवाले पेलिकन, रंगीन सारस, आइबिस और दूसरे पक्षी इस गाँव के मध्य में इमली के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों पर घोंसले बनाने के लिए यहाँ आते हैं ।
स्थानीय लोगों का विश्वास है यह कि ये पक्षी वर्षा और फसलों के लिए सौभाग्य लाते हैं, इसलिए वे उनकी रक्षा करते हैं । इनके घोंसलों के नीचे प्राकृतिक गुवानो खाद की भारी मात्रा जमा हो जाती है जिसे गाँववाले ले जाते हैं । मछली खाने वाले इन पक्षियों के मल में काफी मात्रा में नाइट्रेट होता है ।
जिन पेड़ों पर ये पक्षी रहते हैं उनके मालिक पेड़ों के नीचे गहरे गड्ढे खोद देते हैं जिनमें गुवानो गिरता रहता है । आसपास के ताल-तलैयों की गाद को गुवानों में मिला दिया जाता है । इसे वे लोग अपने खेतों में इस्तेमाल करते हैं या खाद के रूप में बेच देते हैं । अब घोंसलों के निर्माण को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने अपने घरों के आसपास भी पेड़ लगा दिए हैं ।
केस अध्ययन # 3:
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प्रजनन कार्यक्रम (Breeding Programmes) :
बाघ परियोजना :
भारत सरकार ने वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड-इंटरनेशनल की सहायता से इसका आरंभ 1973 में किया था । प्रमुख जातियों और उसके सभी आवासों के संरक्षण के लिए यह अपने ढंग की पहली पहल थी । बाघ परियोजना का आरंभ देश के विभिन्न पारितंत्रों में बाघों के लिए आरक्षित नौ क्षेत्रों में किया गया जिनका क्षेत्रफल 16,339 वर्ग किमी था ।
2001 तक इन रिजर्व क्षेत्रों की संख्या बढ़कर 27 हो चुकी थी जिनका क्षेत्रफल 37,761 वर्ग किमी था । 9 रिजर्व क्षेत्रों में बाघों की संख्या 1972 में 268 थी जो 1997 तक 23 क्षेत्रों में बढ़कर लगभग 1500 हो चुकी थी । बाघ परियोजना ने इस बात को मान्यता दी कि अलग से बाघों का संरक्षण असंभव है और बाघ के संरक्षण के लिए उसके आवास का संरक्षण आवश्यक है ।
मगरमच्छों का संरक्षण:
मगरमच्छों के लिए खतरा यूँ है कि उनकी खाल का उपयोग चमड़े की वस्तुएँ बनाने में किया जाता है । इसके कारण 1960 के दशक में भारत में ये लगभग समाप्त ही हो चुके थे ।
1975 में एक मगरमच्छ प्रजनन और संरक्षण कार्यक्रम बाकी मगरमच्छों का संरक्षण उनके प्राकृतिक आवासों में करने के लिए उनके प्रजनन केंद्र बनाकर आरंभ किया गया । यह देश की संभवतः सबसे सफल बहिःस्थली संरक्षण और प्रजनन परियोजनाओं में से एक है ।
30 से अधिक कृत्रिम प्रजनन केंद्रों, चिड़ियाघरों और दूसरे क्षेत्रों में मगरमच्छों का व्यापक प्रजनन किया गया । यहाँ प्रजनन कार्य सफलता से जारी है । 20 प्राकृतिक जलाशयों में तीनों प्रजातियों के हजारों मगरमच्छ पैदा किए गए हैं ।
हाथी परियोजना:
उत्तरी, पूर्वोत्तर और दक्षिणी भारत के प्राकृतिक आवासों में हाथियों की एक व्यावहारिक संख्या का दीर्घकालीन जीवन सुनिश्चित करने के लिए हाथी परियोजना 1992 में शुरू की गई । इसे 12 राज्यों में चलाया जा रहा है । इसके बावजूद हमारे हाथियों के झुंड संकट से ग्रस्त हैं क्योंकि मानव के कार्यकलापों के कारण उनका आवास सिकुड़ रहा है और उनके आवागमन के रास्तों में बाधाएँ पैदा हो रही हैं ।
केस अध्ययन # 4 :
उड़ीसा: ओलिव रिडली कछुए (Orissa: Olive Ridley Turtles):
उड़ीसा तट पर हर साल गहिरमाथा में और दूसरी जगहों पर लाखों ओलिव रिडली कछुए दिसंबर और अप्रैल के बीच तट पर सामूहिक रूप से अंडे देने के लिए, जिसे अरिबड़ा कहते हैं, जमा होते हैं । यह दुनिया में ओलिव रिडली कछुओं के अंडे देने का सबसे बड़ा स्थल है । 1999 में मार्च के अंत तक अनुमान किया गया था कि गहिरमाथा तट पर कोई दो लाख कछुओं ने अंडे दिए हैं । समुद्र जीवविज्ञानियों का मानना है कि 1000 अंडों में से केवल एक ही वयस्कता की अवस्था तक पहुँचता है ।
ये प्रजनन स्थल आज अनेक खतरों से घिरे हैं । प्रजननस्थलों का सिकुड़ना, इन अंडे देने की जगहों के आसपास सड़कों और इमारतों का निर्माण और बुनियादी ढाँचे की अन्य परियोजनाएँ प्रजनन में बाधक बन रही हैं । ट्राउलरों से मछलियों का शिकार इन कछुओं के लिए एक और खतरा है ।
1974 में इस समुद्रतट की ‘खोज (discovery)’ के बाद इसे एक अभ्यारण (भीतरकनिका अभयारण्य) घोषित किया गया और यहाँ शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया । बड़े ट्राउलरों से कछुओं के लिए पैदा खतरों को देखते हुए 1982 में उड़ीसा समुद्र मत्स्य केंद्र नियमन अधिनियम पारित किया गया ।
यह कानून पूरे राज्य में तट से 10 किमी के अंदर ट्राउलिंग पर रोक लगाता है और सभी ट्राउलरों के लिए कछुओं को बचाने के उपायों को भी अनिवार्य बनाता है । 2001 में उड़ीसा सरकार ने ऐलान किया कि जनवरी से मई तक के पाँच महीनों की अवधि में तट से 20 किमी दूर तक मछलियाँ मारने की मनाही रहेगी ।
पहल के इन प्रयासों के अलावा भारतीय वन्यजीवन संरक्षण समिति, दिल्ली और उड़ीसा वन्यजीवन समिति अनेक गैर-सरकारी संगठनों को भागीदार बनाकर ‘आपरेशन कच्छप’ चला रही है । इस परियोजना में उड़ीसा का वन विभाग, भारतीय वन्यजीवन संपदा, देहरादून और कोस्ट गार्ड शामिल हैं ।
केस अध्ययन # 5:
बीज बचाओ आंदोलन (Save the Seeds Movement):
यह आंदोलन हिमालय की तलहटी में आरंभ हुआ । सदस्यों ने गढ़वाल में विभिन्न पौधों के बीज जमा किए हैं । इस आंदोलन ने धान, राजमा, दालों, ज्वार-बाजरा, सब्जियों, मसालों और बूटियों की सैकड़ों स्थानीय किस्मों का सफलता से संरक्षण किया है । इस कार्यक्रम के फलस्वरूप स्थानीय किसानों के खेतों में अनेक भिन्न-भिन्न किस्में उगाई जाने लगी हैं ।
इसे स्थानीय महिला समूहों ने भी समर्थन दिया है जिनको लगा कि ये किस्में हरित क्रांति से प्राप्त किस्मों से बेहतर हैं । इसके विपरीत थोड़े समय में नकदी लाभ पाने में दिलचस्पी रखने वाले पुरुषों को स्थानीय किस्में उगाने के लाभों को समझना कठिन लगता रहा है ।