Read this article in Hindi to learn about the scope of environmental studies.
हम जिन क्षेत्रों में रहते हैं उनके प्राकृतिक इतिहास का अध्ययन करें तो हमें मालूम होगा कि हमारे वर्तमान परिवेश अतीत में प्राकृतिक भूदृश्य (natural landscape) थे, जैसे जंगल, पर्वत, रेगिस्तान या इन सबका संयोग । हममें से अधिकांश लोग ऐसे भूदृश्यों में रहते हैं जो मनुष्यों के हाथों बहुत अधिक परिवर्तित होकर गाँवों, कस्बों और नगरों में बदल गए हैं ।
लेकिन हममें से जो लोग नगरवासी हैं उनको भी खाद्य पदार्थ आसपास के गाँवों से मिलते हैं, और ये गाँव भी कृषि के लिए जल, ईंधन की लकड़ी, चारा और मछलियों जैसे संसाधनों के लिए जंगलों, घास के मैदानों, नदियों, समुद्रतटों जैसे प्राकृतिक भूदृश्यों पर निर्भर हैं । इस तरह हमारे रोजमर्रा के जीवन का हमारे परिवेश से अटूट संबंध है, और इससे हमारा परिवेश प्रभावित भी होता है ।
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हम पीने के लिए और रोजमर्रा के दूसरे कामों के लिए पानी का उपयोग करते हैं । हम हवा में साँस लेते हैं । हम ऐसे संसाधनों का उपयोग करते हैं जिनसे हमारा भोजन बनता है और जीवित पेड़-पौधों और जीवों के समुदाय पर निर्भर हैं जिनसे जीवन का जाल (life cycle) बनता है जिसके अंग हम भी हैं । हमारे इर्द-गिर्द की हर चीज हमारा पर्यावरण है और हमारा जीवन उसे यथासंभव सुरक्षित रखने पर निर्भर है ।
प्रकृति पर हमारी निर्भरता इतनी अधिक है कि पृथ्वी के पर्यावरणीय संसाधनों की रक्षा किए बिना हम जीवित नहीं रह सकते । इसीलिए अधिकांश संस्कृतियाँ पर्यावरण को ‘माँ प्रकृति’ कहती हैं और अधिकांश परंपरागत समाज जानते हैं कि प्रकृति का सम्मान करना उनकी अपनी जीविका की रक्षा के लिए कितना आवश्यक है । इससे ऐसे अनेक सांस्कृतिक कार्यकलाप विकसित हुए हैं जिन्होंने परंपरागत समाजों को उनके प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में सहायता दी है ।
भारत में प्रकृति और सभी जीवित प्राणियों का ध्यान रखना कोई नई बात नहीं है; हमारी तमाम परंपराएँ इन्हीं जीवनमूल्यों पर आधारित हैं । सम्राट अशोक के शिलालेखों में कहा गया है कि जीवन के सभी रूप हमारे कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, और यह बहुत पहले, चौथी सदी ईसा-पूर्व की बात है ।
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लेकिन पिछले दो सौ वर्षों में आधुनिक समाज यह मानने लगे कि प्रौद्योगिक नवप्रवर्तनों (technological innovations) का बेलगाम उपयोग करके अधिकाधिक संसाधन जुटाने के प्रश्न का आसान समाधान निकाला जा सकता है ।
कुछ उदाहरण हैं: कृत्रिम खादों और कीड़ामार दवाओं का उपयोग करके खाद्य-उत्पादन बढ़ाना, पालतू पशुओं और फसलों की बेहतर किस्मों का विकास करना, विशालकाय बाँधों से खेतों को सींचना और उद्योगों का विकास करना । इन सबका परिणाम है तीव्र आर्थिक संवृद्धि (rapid economic growth), लेकिन इस तरह के अविचारित विकास ने स्वाभाविक रूप से पर्यावरण को क्षति पहुँचाई है ।
हमारे अधिकाधिक उपभोगमुखी समाज के लिए वस्तुओं की आपूर्ति करने वाले औद्योगिक विकास और गहन कृषि बड़ी मात्रा में जल, खनिज, पेट्रोलियम उत्पादों और लकड़ी आदि प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं । खनिज और तेल जैसे अनवीकरणीय संसाधन ऐसे हैं कि अगर हम भावी पीढ़ियों का ध्यान रखे बिना इनका दोहन करते रहे तो ये भविष्य में समाप्त हो जाएँगे । इमारती लकड़ी और जल जैसे नवीकरणीय संसाधन वे हैं जिनका उपयोग किया जाता है, पर उन्हें पुनर्वृद्धि या वर्षा जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाएँ फिर से पैदा कर सकती हैं ।
लेकिन प्रकृति जिस गति से उन्हें पैदा करती है उससे तीव्रतर गति से हम उनका उपयोग करते रहें तो ये चुक जाएँगे । उदाहरण के लिए, किसी जंगल में पेड़ों के उगने और उनके बढ़ने की गति से अधिक तेजी से हम इमारती और जलावन लकड़ी लेते रहें तो लकड़ी की आपूर्ति की भरपाई नहीं हो सकती ।
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जंगलाती क्षेत्र की हानि से न सिर्फ जंगल के संसाधनों, जैसे इमारती लकड़ी और लकड़ी से भिन्न दूसरी वस्तुओं की ही हानि नहीं होती, इससे हमारे जल संसाधन भी प्रभावित होते हैं क्योंकि एक सही-सलामत प्राकृतिक वन एक स्पंज की तरह काम करता है जो वर्षाकाल में जल को सोखता है और सूखे मौसमों में धीरे-धीरे उसे छोड़ता जाता है । इसके अलावा, वनविनाश (deforestation) से मानसून काल में बाढ़ आती है और वर्षाकाल के समाप्त होने के बाद नदियाँ सूख जाती हैं ।
रोज़मर्रा के मानवीय कार्यकलापों से पर्यावरण पर पड़ने वाले ऐसे अनेक प्रभावों को हमें समझना होगा ताकि दीर्घकाल तक हमें जिन संसाधनों की आवश्यकता है, वे हमें मिलते रहें । हमारे प्राकृतिक संसाधनों की तुलना बैंक में जमा धन से की जा सकती है । यदि हम तेजी से उसका उपयोग करें तो पूँजी घटकर शून्य रह जाएगी । दूसरी ओर, अगर हम केवल ब्याज से काम चलाएँ तो वह और अधिक समय तक हमारे काम आएगी । इसे ही निर्वहनीय (sustainable) उपयोग या विकास कहते हैं ।